Friday, November 30, 2007

माखन वशनुक्रम

छत्तीसगढ़ के प्रमुख मालगुजारों में शिवरीनारायण के स्व. माखन साव का नाम आज भी बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। कृशि कार्य उनका प्रमुख कर्म था। व्यापार करके उन्होंने वैभव और सम्पन्नता प्राप्त की थी। अनेक राजा-महाराजा, जमींदार और मालगुजारों से उनके मधुर और पारिवारिक सम्बंध थे। वे धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अपनी वार्शिक आमदनी का कुछ भाग वे दान-पुण्य और सार्वजनिक हितों में खर्च किया करते थे। उन्होंने अपनी सभी मालगुजारी गांव में तालाब और कुंआ खुदवाया जो आज भी है। तालाब इतने बड़े-बड़े हैं, जिनसे खेतों की सिंचाई की जा सकती है। मुझे मेरे घर में श्री खेदूराम साव के नाम डिप्टी कमि नर बिलासपुर द्वारा प्रद>श एक प्रमाण पत्र मिला है जिसमें सन् १८९९-१९०० में अपने मालगुजारी गांव लखुर्री, हसुवा और टाटा के गरीब जनता के उत्थान के लिए २५९५ रूपये में तालाब खुदवाकर सद्कार्य करने के कारण प्र शस्ति पत्र प्रदान किये जाने का उल्लेख है।

अनेक तीर्थस्थानों जैसे, बद्रीनाथ, केदारनाथ, जगन्नाथपुरी, मथुरा, वृंदावन, इलाहाबाद, बनारस, कटनी, सारंगढ़, शिवरीनारायण, हसुवा, तालदेवरी और सोंठी आदि में धर्म शाला निर्माण कराये थे। शिवरीनारायण के सभी कुंओं को उनके परिवारजनों ने बनवाया था। माखनसाव के वं शज श्री साधराम साव, लखुर्री ने कुंआ सहित भूमि दान देकर सोंठी के कुश्ठ आश्रम को शुरूवात करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। शिवरीनारायण में सुप्रसिद्ध साव घाट, अस्थि कुंड और महे वर महादेव धर्म शाला और शीतलामाता का मंदिर बरम बाबा की मूर्ति आदि स्थापित करायी । इस घाट को बनवाने के लिए माखन साव के पौत्र और मालगुजार स्व. श्री आत्माराम साव ने अंग्रेज सरकार से अनुमति ली थी। उन्होंने अपने दादा जी की स्मृति में शिवरीनारायण में मिडिल स्कूल भवन बनवाकर ०६.०५.१९३५ को महाराजा की सिल्वर जुबली उत्सव के अवसर पर डिस्ट्रक्ट कौंसिल को समर्पित किया था, इसी भवन में आज हायर सेकंडरी स्कूल लगता है। लखुर्री और हसुवा में स्कूल भवन खुलवाया ही नहीं बल्कि उसके लिए भवन निर्माण भी कराया। लखुर्री के परघिया साव ने शिवरीनारायण के पंडित धर्मानंद द्विवेदी के दादा जी की प्रेरणा से उनके घर में जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों और मंदिर परिसर में बजरंगबली की मूर्ति की स्थापना करायी थी। मंदिर के भोग रागादि के लिए पुरगांव में जमीन दिए थे। उनसे उनकी घनिश्ठ मित्रता थी। कदाचित इसी कारण उन्होंने पंडित कौ शलप्रसाद द्विवेदी को संस्कृत की शिक्षा के लिए बनारस भेजा था और उनकी शिक्षा का पूरा खर्च भी उठाया था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और तत्कालीन शिवरीनारायण के तहसीलदार ठाकुर जगमोहन सिंह सन् १९८९ में प्रलय नामक पुस्तक लिखकर प्रकाशित कराये थे। उसमें महानदी में सन १८८५ में आई बाढ़ का उल्लेख है इसमें माखन साव का भी उल्लेख है :-

बाढ़त सरित बारि छिन-छिन में। चढ़ि सोपान घाट वट दिन मे।
शिवमंदिर जो घाटहिं सौहै। माखन साहु रचित मन मोहै।।८४।।
चट शाला जल भीतर आयो। गैल चक्रधर गेह बहायो।
पुनि सो माखन साहु निकेता।। पावन करि सो पान समेता।।८७।।

उनकी धार्मिकता और भक्ति को डां. भालचंद राव तैलंग ने ''छत्तीसगढ़ी, हल्बी, भतरी बोलियों का भाशा वैज्ञानिक अध्ययन'' के अर्थतत्व पृ. २०० मे ंउल्लेख किया है। वि ोश घटना के कारण ''खिच्रकेदार`` को परिभाशित करते हुए उन्होंने लिखा है :-``रतनपुर का मंदिर जहां पहले माखन साव ने एक साधु को खिचड़ी परोसी थी और जहां पक़ी हुई खिचड़ी से भरी पत्तल को फोड़कर भिशवजी प्रकट हुए थे। इस उद्धरण को रामलाल वर्मा द्वारा लिखित रायरतनपुर महात्म्य (पृ. २२) से लिया गया है।``

चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) में अस्थि विसर्जन और पिंडदान को मोक्षदायी माना गया हैं कवि बटुक सिंह चौहान शिवरीनारायण सिंदूरगिरि माहात्म्य में लिखते हैं : -

शिवगंगा के संगम में कीन्ह अस परवाह।
पिंडदान वहां सो करे तरो बैंकुंठ जाय।।

कदाचित् इसीलिए माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि प्रवाह के लिए एक-एक कुंड बना है। साव घाट में महे वर महादेव और शीतला माता का भव्य मंदिर है जो क्रम श: माखन साव परिवार के कुलदेव और कुलदेवी हैं । मंदिर परिसर में सन् १९२० में एक संस्कृत पाठ शाला खोली गयी थी। इस संस्कृत पाठ शाला में सूरजदीन साव, विद्याधर साव, इच्छाराम साव, मन्नाराम साव, धन्नाराम साव, साधराम साव, लक्ष्मीप्रसाद साव, राघवसाव, मुरितराम साव, पंडित कौ शलप्रसाद द्विवेदी, आदि अनेक लोगों ने शिक्षा ग्रहण की। इस पाठ शाला में का शी से पंडित चतुर्वेदी जी को नियुक्त किया गया था। उनके पुत्र पं. रामचंद्र चतुर्वेदी हसुवा में रहने लगे थे, आगे चलकर उन्हें इस वं श के बहुत लोगों ने अपना गुरू बनाकर उनसे दीक्षा प्राप्त की। इस माखन साव घाट में अनेक सती चौरा, शिव लिंग, हनुमान और बरम बाबा की मूर्तियां हैं। अपने परिवार की सुख समृद्धि और वं श वृद्धि के लिए माखन साव ने महे वरनाथ का मंदिर निर्माण कराया था। पं. मालिकराम भोगहा ने ''शिवरीनारायण माहत्म्य'' में एक जगह उल्लेख किया है :-''नदी खण्ड में स्थित महे वर महादेव का निर्माण संवत् १८९० में माखन साव के पिता श्री मयाराम साव ने कराया था ।'' उनकी पूजा अर्चना से आज उनका परिवार वट वृक्ष की भांति फैल गया है। मुझे खु शी है कि मैं इस वं श का छोटा पौध हूं। शिवरीनारायण के तहसीलदार और सुप्रसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहन सिंह ''सज्जनाश्टक`` में यहां के आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय लिखे हैं। उसमें वे माखन साव के बारे मेंे लिखते हैं :-

माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।
लच्छपती मुइ भारन जनन को टारत सकल कले शा।
द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को ले शा।
दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
चार बीस भारदहु के बीते रीते गोलक नैना।
लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।

माखन साव इस क्षेत्र के प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने बद्रीनाथ और रामे वर की पदयात्रा की थी। उस काल में तीर्थयात्रा पर जाना दु कर कार्य था। उस पर उनकी तीर्थयात्रा उनके जैसे पुण्यात्मा के वं श की ही बात थी। कदाचित् यही कारण है कि मृत्यु को वरण करने के इतने वर्शो के बाद भी उन्हें बड़ी श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता है।

माखन साव और पंडित यदुनाथ भोगहा शिवरीनारायण के आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किये गए थे। उन्हें अंग्रेज सरकार द्वारा दरबारी नियुक्त किया गया और माफी बंदूक और अन्य हथियार रखने की अनुमति भी दी गयी थी। आगे चलकर माखन साव के पुत्र स्व. श्री खेदूराम साव को १७ मई सन् १८९४ को शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बैंच मजिस्टेट और दरबारी मुकर्रर किया गया था। उन्हें भी माफी हथियार रखने की अनुति दी गयी थी। अंगे्रज अधिकारी उनकी बहुत इज्जत किया करते थे। इसी प्रकार माखन साव के पौत्र और खेदूराम साव के पुत्र श्री आत्माराम साव को ३१.०५.१९२० को जांजगीर तहसील के शिवरीनारायण के बेंच मजिस्ट्रेट मुकर्रर किया गया था और उन्हें २९ अक्टूबर सन् १९२० को बिलासपुर जिले के दरबारी मंजूर किया गया था। अंगे्रज सरकार द्वारा सन् १९२६ में श्री आत्माराम साव को ''सर्वोतम कृ शक'' का तमगा प्रदान किया गया था। उन्हे राय बहादुर का खिताब भी दिया जाना तय हो गया था। लेकिन उन्होंने खिताब लेने से इंकार कर दिया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मालगुजारी प्रथा समाप्त कर दी गयी। लेकिन माखन साव के वं शज अपनी कुलदेवी शीतला माता और कुलदेव महे वर महादेव की छत्रछाया में वट वृक्ष की भांति फैलते जा रहे हैं।

शिवरीनारायण के अलावा हसुवा, टाटा और लखुर्री में महे वर महादेव का और झुमका में बजरंगबली का भव्य मंदिर है। हसुवा के महे वर महादेव के मंदिर को माखन साव के भतीजा और गोपाल साव के पुत्र बैजनाथ साव, लखुर्री के महे वरनाथ मंदिर को सरधाराम साव के प्रपौत्र प्रयाग साव ने और झुमका के बजरंगबली के मदिर को बहोरन साव ने बनवाया। इसी प्रकार टाटा के घर में अंडोल साव ने शिवलिंग स्थापित कराया था। वास्तव में माखन साव, धीरसाय साव के पौत्र और मयाराम साव के ज्येश्ठ पुत्र थे। वे सत्य निश्ठ, मृदुभाशी, परोपकारी और धर्मनिश्ठ व्यक्ति थे। मन में जिज्ञासा होती है कि कौन थे माखन साव ? कहां से और कैसे आया उनका परिवार और आज उनके परिवार की क्या स्थिति है ? धीरसाय साव का परिवार रत्नपुर राज के घुटकू ग्राम का एक प्रतिश्ठत व्यवसायी परिवार था। राज दरबार में उन्हे वि ोश सम्मान प्राप्त था। इनके पूर्वजों में जुड़ावन साव और उनके पुत्र बसावन साव और उनके पुत्र धीरसाय को पित्र पुरूश के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। सन् १७४० की एक घटना चक्र में सभी वै य परिवारों को रत्नुपरराज का त्याग करना पड़ा। तब धीरसाय का परिवार लवन जमींदारी के आसनिन गांव में आकर बस गया। मान-सम्मान भरे जीवन का परित्याग और नवजीवन की शुरूवात। इसी प्रकार अन्य वै य परिवार खैरागढ़राज, कवर्धाराज, सारंगढराज, सक्तीराज में जाकर बस गये। रत्नपुरराज से वणिक परिवारों के पलायन से वहां की अर्थ व्यवस्था प्रभावित होने लगी। तब धीरसाय की खोज हुई। लेकिन उन्होंने तो गुमनाम जिंदगी अपना ली थी। आसनिन गांव तीन जमींदारी- कटगी, लवन और सोनाखान के संधि स्थल पर स्थित होने के कारण यथा शीघ्र उनका व्यापार चल निकला। उनका प्रमुख कर्म कृशि था। हसुवा, सोनाखान के जमीदार द्वारा पुरी के भगवान जगन्नाथ मंदिर में चढ़ाया हुआ गांव था। धीरसाय साव वहां कृशि कार्य करने लगे। आगे चलकर उसे जगन्नाथ मंदिर ट्रस्ट पुरी से धीरसाय साव ने सन् १८०० ई. में खरीद लिया और यहीं उनकी पहली मालगुजारी गांव हुई। उनकी मेहनत और लगन से हसुवा की जमीन सोना उगलने लगी। धीरे-धीरे जमीदारों, राज-महाराजा और मालगुजारों से मधुर सम्बंध बनते गए। धीरसाय के पुत्र मयाराम, सरधाराम और मनसाराम हुए। मयाराम साव हसुवा का काम देखने लगे। इसी प्रकार सरधाराम नवागढ़ और मनसाराम भटगांव में व्यापार करने लगे। सन् १८७२ में सरधाराम के पुत्र भाोभाराम की मृत्यु नवागढ़ में हो गयी और पुत्र भाोक में उनका व्यापार प्रभावित होने लगा और अंत में वे अपना व्यापार समेटकर शिवरीनारायण आ गये। इसी प्रकार सन् १८६९ में सरधाराम के पुत्र रतनलाल की मृत्यु हो जाने से वे भी अपना व्यापार समेटकर वापस शिवरीनारायण आ गये। शिवरीनारायण में तीनों भाइयों, पुत्र और पौत्रों की मेहनत से उनका व्यापार बढ़ा और गांवो की संख्या बढ़ी। अभिलेखोंं से प्राप्त जानकारी के अनुसार मयाराम साव के माखन, गोपाल, गोविंद और गजाधर मयाराम साव के चार पुत्र थे। ज्येश्ठ पुत्र माखन साव का जन्म संवत १८६९ तद्नुसार सन् १८१२ में हुआ। ज्येश्ठ होने के कारण उनको सबका असीम स्नेह मिला। १७ वर्श की अल्पायु में ही उन्होंने परिवार की जिम्मेदारी उठाते हुए व्यापार में हाथ बंटाने लगा। उन्होंने कोड़ाभाट में नमक का व्यापार शुरू किया। नमक के बदले धान लेकर शुरू किये व्यापार में उन्हें बहुत सफलता मिली। आगे चलकर धान की बाढ़ी देने और महाजनी का व्यापार शुरू किया। इसमें उन्हें आ शातीत सफलता मिली और धीरे धीरे उन्होंने टाटा, झुमका, सितलपुर, बछौडीह, कमरीद म. नं. १ और लखुर्री गांव खरीदकर वहां के मालगुजार बने। व्यापार बढ़ने से जिम्मेदारियां बढ़ने लगी। एक एक करके दादा धीरसाय, पिता मयाराम और चाचा सरधा और मनसाराम की मृत्यु हो गयी। आगे चलकर सरधाराम साव के पौत्र सिरदार सिंह साव ने अपने चाचा ठुठवासाव के साथ लुखर्री को और मनसाराम के तीनों पुत्र सुखरूसाव, अंडोलसाव और गनपतसाव ने टाटा को अपना सदर मुख्यालय बनाया। इसी बीच अंग्रेज सरकार द्वारा सोनाखान जमींदारी के गांवों की संख्या कम करने और अर्थ व्यवस्था डगमगा जाने के कारण चिंतित जमींदार रामराय ने महाजनों से कर्ज लेना शुरू किया। कई वर्शो तक आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से कर्ज लौटाने में वे अपने को असमर्थ पाने लगे जिससे उनकी कटुता व्यापारियों और जमींदारों से बढ़ने लगी। इसी कटुता के चलते और सन् १८०० में शिवरीनारायण के पुजारी भगीरथी भोगहा के आमंत्रण पर मायाराम साव अपने परिवार सहित शिवरीनारायण आ गये। यहां बसने के लिए उन्होंने न केवल भूमि उपलब्ध करायी, बल्कि उन्होंने मकान बनवाने में मदद भी की। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में माखन साव का खूब मान-सम्मान था। मुझे मेरे घर में अनेक राजा, महाराजा, जमींदारों की भाशदी और अनेक अवसरों के निमंत्रण पत्र मिले हैं, जिससे उनके व्यक्तित्व का पता चलता है। आज भी लोग उनका नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं। मान सम्मान भरा जीवन जीने के बाद फाल्गुन सुदि २, संवत् १९४९ (तद्नुसार ०६ मार्च सन् १८९२) को ८० वर्श की आयु में माखन साव स्वर्गवासी हुए। उनके सद्कार्य और महे वर महादेव तथा शीतला माता के पुण्य प्रताप के कारण ही आज उनका भरा पूरा परिवार है।

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