Friday, November 30, 2007

खरौद के लखने वर

खरौद, चित्रोत्पला-गंगा महानदी के किनारे जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर जिला मुख्यालय से ५८ कि. मी., बिलासपुर जिला मुख्यालय से ६२ कि. मी. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से १२२ कि. मी.(व्हाया बलौदाबाजार) तथा संस्कारधानी शिवरीनारायण से मात्र २ कि. मी. की दूरी पर बसा एक धार्मिक नगर है। शैव परम्परा का मंदिर लक्ष्मणेश्वर शिवलिंग से स्पष्ट परिलक्षित होता है। यहां स्थित गिर गोस्वामियों का शैव मठ भी इसी का द्योतक है। जबकि शिवरीनारायण भगवान विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा की अधिकता और रामानंदी वैष्णव मठ के कारण वैष्णव परम्परा का उदाहरण माना जाता है। शायद यही कारण है कि शिवरीनारायण और खरौद को क्रमश: विष्णुकांक्षी और शिवाकांक्षी कहा जाता है। इसकी तुलना उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी के भगवान जगन्नाथ और भुवनेश्वर के लिंगराज से की जाती है। प्राचीन काल में जगन्नाथ पुरी जाने का रास्ता भी खरौद और शिवरीनारायण से होकर जाता था। यह भी मान्यता है कि प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा में एक दिन के लिए भगवान जगन्नाथ पुरी को छोड़कर शिवरीनारायण में विराजते हैं। यहां माघ पूर्णिमा से महाशिवरात्रि तक बृहद मेला भरता है। दर्शनार्थियों की भीड़ इतनी अधिक होती है, कि कुंभ जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है। इसीलिए यहां के मेला को छत्तीसगढ़ का महाकुंभ भी कहा जाता है। यहां के इस मेले में छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्पराओं का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है।

उत्तम किस्म के फर्शी पत्थर को अपने गर्भ में समेटे खरौद का प्राचीन इतिहास शैव धर्म के वैशिष्ट्य को प्रदर्शित करता है। सामान्यत: छत्तीसगढ़ में शैव धर्म की प्राचीनता उसे प्रागैतिहासिक काल में ले जाती है। आज भी यहां शिव के पुरूष विग्रह की पूजा दूल्हादेव के रूप में करते हैं। प्रदेश के कई क्षेत्रों में उसे बाबा या बड़ादेव भी कहते हैं। शिव के साथ शक्ति या ग्राम देवी के रूप में छत्तीसगढ़ के गांवों में इसके संहारक रूप की पूजा कंकालिन देवी, बंजारी देवी आदि के नाम से आज भी की जाती है। विद्वानों ने प्रागैतिहासिक काल के जो तथ्य प्रस्तुत किये हैं उसमें शिवलिंग की पूजा का विशेष महत्व बतलाया गया है। इसके लिए प्राय: पर्वतादिक स्थलों को चुना गया। ऐसे स्थलों में पाषाण खंड या चमत्कारपूर्ण दृश्य दिखाई दिये, जिसके कारण उनमें ईश्वर की सत्ता मानकर उनकी पूजा की जाने लगी। भगवान लक्ष्मणेश्वर महादेव के मंदिर में स्थित लक्ष्यलिंग इसी प्रकार के उन्नत भू भाग में स्थित एक स्वयंभू लिंग है। श्रद्धा का प्रतीक यह लिंग छत्तीसगढ़ वासियों के लिए काशी के समान फलदायी है। कल्याण के तीर्थांक में खरौद को एक तीर्थ के रूप में उल्लेखित किया गया है।

नगर के सभी प्रवेश मार्गों पर तालाब एवं भव्य मंदिरों का दर्शन सुलभ है। इसके चारों ओर प्राचीन दुर्ग और खाइयों के अवशेष आज भी दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तव में यह ''मृि>शऎशउश गढ़'' का अवशेष है, जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत मात्रा में देखने को मिलता है। पश्चिम दिशा में भगवान लक्ष्मणेश्वर के डमरू का निनाद, पूर्व दिशा में शीतला माता का आधिपत्य, उत्तर दिशा में राम सागर, डघेरा (देवधरा) तालाब एवं राम भक्त हनुमान की कीर्ति पताका, दक्षिण दिशा में हरशंकर तालाब और शबरी देवी का कलात्मक मंदिर आगन्तुकों का स्वागत करता है। नगर के मध्य में इंदलदेव का कलात्मक मंदिर, शुकुलपारा में साधु-संतों का मठ और तिवारीपारा में कंकालिन देवी स्थित है।
रामायण कालीन खरदूषण का नगर

प्राचीन काल में यह क्षेत्र दंडकारण्य कहलाता था। दंडकारण्य में श्रीराम लक्ष्मण और जानकी ने कई वर्श व्यतीत किये। इसी क्षेत्र से सीता का हरण हुआ था। श्रीराम और लक्ष्मण ने सीता की खोज के दौरान शबरी भीलनी के आश्रम में आकर उसके जूठे बेर खाये थे इसी प्रसंग को लेकर इस स्थान को शबरी-नारायण कहा गया। कालान्तर में यह बिगड़कर शिवरीनारायण कहलाने लगा। खरौद नगर के दक्षिण प्रवेश द्वार पर स्थित शौरि मंडप शबरी का ही मंदिर है। इस मंदिर में श्रीराम और लक्ष्मण की मूर्ति है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में खरदूषण का राज था, जो श्रीराम के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ था। कदाचित् उन्हीं के नाम पर यह नगर खरौद कहलाया। यहां के लक्ष्मणेश्वर लिंग को भी लक्ष्मण के द्वारा स्थापित माना जाता है। इस सम्बंध में एक किंवदंती प्रचलित है, जिसके अनुसार रावण वध के पश्चात् राम और लक्ष्मण के उपर ब्रह्म हत्या का आरोप लगाया गया था। ऋषियों द्वारा श्रीराम को रावण वध के पूर्व रामेश्वर लिंग की स्थापना कर पूजा-अर्चना करने के कारण ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त रखा गया। इसी के बाद लक्ष्मण शिवाभिषेक के लिए चारों दिशाओं में स्थित तीर्थ स्थलों-उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्, पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिकाधाम और मध्य में गुप्ततीर्थ शिवरीनारायण से पवित्र जल एकत्रित करके अयोध्या को लौट रहे थे, तभी खरौद क्षेत्र में उन्हें क्षय रोग हो गया और उनकी नाक से रक्त बहने लगा। इससे मुक्ति पाने के लिए उन्हें यहां पर महादेव जी की तपस्या करनी पड़ी। तपस्या से प्रसन्न होकर महादेव जी उन्हें लक्ष्यलिंग के रूप में दर्शन देकर पार्थिव पूजन का आदेश दिया। इस पूजन से उन्हें इस क्षय रोग से मुक्ति मिली वहीं वे ब्रह्म हत्या के पाप से भी मुक्त हो गये। आज भी लक्ष्मणेश्वर दर्शन के सम्बंध में ''क्षय रोग निवारणाय लक्ष्मणेश्वर दर्शनम्'' की उक्ति प्रसिद्ध है। इस प्रकार यहां का लक्ष्यलिंग लक्ष्मण के नाम पर लक्ष्मणेश्वर प्रसिद्ध हुआ। आंचलिक कवि स्व. श्री तुलाराम गोपाल के शब्दों में-
लाख लिंगधर लखलेश्वर शंकर शिव औघड़ दानी।
निकले भू से शंभू हर हर महादेव वरदानी।।

खरौद नामकरण के सम्बंध में लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख में ३० वें श्लोक में वर्णित है

आलोक्यानेन विद्यु-ललित रलत रासार तारूण्य लक्ष्मी।
लक्ष्मीमप्येवमेवं चकितभगदृशां प्रीतिभप्यगंनानाम्।
.... कामाय.....पुनरिह सुकृतै: दृष्ट संसुप्तबोधात् ।
एतच्चक्रेनवीनं सहजशुभमति: मंडपं भूतभर्तु: ।।

इसके अनुसार महाराज खड्गदेव ने भूतभर्ता शिव के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, जो पहले केवल मंडप मात्र था। खड्गदेव शब्द में ''खड्ग'' का अपभ्रंश ''खरग'' तथा ''देव'' शब्द का अपभ्रंश 'औद' या ओद बना प्रतीत होता है। 'ग' वर्ण के लोप हो जाने तथा 'खर' और 'औद' के मिलने से ''खरौद'' शब्द बन जाता है। इस प्रकार इस ग्राम (अब नगर) का खरौद नाम खड्गदेव शब्द का बिगड़ा रूप हो सकता है।
खरौद : एक सफर

शासकीय अभिलेखों के अनुसार खरौद नगर पांच ग्रामों का एक संघ हैं। खरौद नाम से कोई पृथक् ग्राम नहीं है। इस संघ में शुकुल ब्राह्मणों के नाम पर शुकुलपारा, तिवारी ब्राह्मणों के नाम पर तिवारीपारा, भदौरिया ब्राह्मणों के नाम पर भड़ेरिया पारा, मध्य में स्थित माझापारा और किसी अग्नि दुर्घटना के नाम पर जरहापारा स्थित है। चार मुहल्लों (ग्रामों) में मालगुजारी प्रथा रही है। यहां शुकुल परिवार ही पहले पूर्णाधिकारी था। बाद में उन्होंने तिवार परिवार को वैवाहिक सम्बंध के लिए और दुबे परिवार को पुरोहिती करने के लिए ससम्मान यहां बसाया था। आज खरौद नगर में जितने मुहल्ले हैं, वह पहले गांव बना, उनकी अपनी ग्राम पंचायतें थीं...बाद में सभी ग्राम पंचायतों को मिलाकर नगरपालिका बनाया गया।

प्राचीन काल में यह क्षेत्र दक्षिण कोसल कहलाता था। तब यहां कलचुरि हैहहवंशी राजा रत्नदेव प्रथम ने अपने राज्य की नींव डाली और रत्नपुर को अपनी राजधानी बनाया। उनके शासन काल में राज्य का खूब विस्तार हुआ। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और पुरातत्वविद पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार दक्षिण कोसल की सीमा उत्तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्जैन और पूर्व में पूर्वी समुद्री तट पाली (जिला-बालसौर, उड़ीसा) तक थी। महाभारत के वन पर्व में उज्जैन को दक्षिण कोसल की पश्चिमी सीमा बताया गया है।
गोसहस्त्रं फलं विन्द्यात् कुलं चैव समुद्धरेत।
कोसलां तुमसासाद्य, कालतीर्थ भुप स्पृशेत्।।

अपने विस्तृत राज्य की सुव्यवस्था के लिए कलचुरि राजाओं ने ८४-८४ गांवों का समूह बनाया जिसे ''चौरासी'' कहा गया। इसे ''गढ़'' और ''मंडल'' भी कहा जाता था। इसके प्रमुख को ''मंडलाधीश'' और ''दीवान'' कहा जाता था। इस प्रकार कलचुरि राजाओं ने ४८ गढ़ बनाये। जिनमें से शिवनाथ नदी के उत्तर में १८ गढ़ और दक्षिण में १८ गढ़ में राज परिवार के लोग मंडलाधीश थे, शेष में विश्वसनीय व्यक्ति को मंडलाधीश बनाया गया था। इस प्रकार यह क्षेत्र `'रतनपुर-छत्तीसगढ़'' कहलाने लगा। खरौद भी इन्ही में से एक गढ़ था। कदाचित् इसी कारण इसे ''खरौदराज'' कहा जाता था। खरौदगढ़ के मंडलाधीश के रूप में पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र का उल्लेख मिलता है। वे ''कोटगढ़'' के भी मंडलाधीश थे। यहां उनके परिवार के गोविंदराम मिश्र अपने दोनों पुत्र देवनाथ और शोभनाथ मिश्र के साथ रहते थे। सन १८३५ में सोनाखान के जमींदार नारायणसिंह ने इनके परिवार को समूल नष्ट करने का प्रयास किया। मगर अपने गर्भ में इस वंश के बीज को अपने गर्भ में लिए एक महिला किसी प्रकार बचकर कोटगढ़ आ गईं यहां इस परिवार के वंशज पले-बढ़े। जब नारायणसिंह को फांसी हो गई तो मिश्र परिवार सन १८६० में कसडोल में स्थायी रूप में रहने लगा। आज भी इनके वंशज कसडोल में निवास करते हैं।

खरौद में आज भी लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के उत्तर में प्राचीन गढ़ का अवशेष देखा जा सकता है। गढ़ का विस्तार इंदलदेव मंदिर तक था। यह क्षेत्र पहले न्याय क्षेत्र के रूप में विख्यात था। आज भी यहां ''कचहरी कुआं'' के नाम से एक स्थान है। उस समय की भाषा में कचहरी जाने को कमासदारी कहा जाता था। सन् १८६१ में जब बिलासपुर को जिला बनाया गया उस समय इस जिलान्तर्गत शिवरीनारायण, बिलासपुर और मुंगेली तहसीलें बनायी गयीं। इस प्रकार खरौद का न्यायालीन अधिकार स्वमेव शिवरीनारायण में स्थानान्तरित हो गया। इसी प्रकार नवागढ़ का न्यायालीन अधिकार मुंगेली आ गया। शिवरीनारायण में ठाकुर जगमोहनसिंह जैसे साहित्यकार तहसीलदार थे। उन्होंने यहां साहित्यिक साधना की और इसे साहित्यिक तीर्थ बना दिया। मेरा सौभाग्य है कि यह मेरी जन्म स्थली है। बाद में तहसील मुख्यालय सन १८९१ में जांजगीर स्थानान्तरित कर दिया गया।

खरौद में आज भी रतनपुर की अनेक परम्पराएं देखने को मिलती हैं। जिस प्रकार रतनपुर में तालाबों की अधिकता थी उसी प्रकार खरौद में भी १२० तालाबों के अवशेष मिलते हैं। रतनपुर में महामाया देवी, भैरव बाबा और बूढ़ेश्वर महादेव का महात्म्य है, उसी प्रकार यहां भैरवनंद तालाब के तट पर भैरव बाबा, महिमामयी महामाया देवी, मणिकर्णिका देवी (मनिका देवी), शबरी देवी और लक्ष्मणेश्वर महादेव का महात्म्य समान रूप से पाया जाता है।

सन् १५४६ ई. के आस पास जब दिल्ली में जहांगीर का शासन था, उस काल में कल्याणसाय रतनपुर का शासक था। उस काल में लिखे गये ''जहांगीरनामा'' में उसका उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार ''जमाबंदी'' पुस्तक में उस काल की व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। उसके अनुसार प्रत्येक गढ़ या चौरासी का प्रमुख ''दीवान'' कहलाता था। दीवान किसी भी जाति के हो सकते थे जिसे आगे चलकर लोग अपने नाम के साथ लिखने लगे। १२ गांवों के समूह को ''बारहों'' कहा जाता था और इसके मुखिया को ''दाऊ'' कहा जाता था। गांव के मुखिया को ''गौंटिया'' कहा जाता था। ये प्रशासनिक प्रमुख लगान वसूल करके राजकोष में जमा करते थे। इस दृष्टि से यहां का पूर्णाधिकारी गौंटिया श्री देवनारायण शुक्ल के पूर्वज थे। आज भी इनके वंशज श्री सुबोध शुक्ल अपनी व्यवहार कुशलता और समर्पण भावना के कारण यहां लोकप्रिय हैं। सन १७३२ में कलचुरि राजाओं का पतन हो गया और रतनपुर की राजगद्दी में मराठा शासकों का कब्जा हो गया। मराठा शासकों ने पूर्व नरेशों द्वारा स्थापित गढ़ों को ''परगना'' बना दिया और दीवान को कमाविसदार। इस प्रकार खरौद भी एक ''परगना'' बन गया। यह व्यवस्था सन् १८१८ तक बनी रही। बाद में केवल तीन परगना क्रमश: रत्नपुर, खरौद और नवागढ़ बनाकर शेष परगनों को इसमें मिला दिया गया। तब खरौद के अंतर्गत अकलतरा, खोखरा, नवागढ़, जांजगीर और किकिरदा के ४५९ गांव सम्मिलित थे। ब्रिटिश काल में इसका श्रेय तहसील के रूप में जांजगीर को मिला और खरौद क्रमश: उपेक्षित होता चला गया।
लक्ष्मणेश्वर महादेव

यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर ११० फीट लंबा और ४८ फीट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर ४८ फीट ऊंचा और ३० फीट गोलाई लिए मंदिर स्थित है। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। पहले मंदिर का सभा मंडप के सामने के भाग में एक गड्ढा था जिसे पुजारियों ने मिट्टी डलवाकर उसमें सत्यनारायण मंडप, नंदी मंडप और भोगशाला का निर्माण करवा दिया था। इसी के एक भाग में मिश्र परिवार द्वारा श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण कराया गया है।

मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप मिलता है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। दक्षिण भाग का शिलालेख की भाषा अस्पष्ट है अत: इसे पढ़ा नहीं जा सकता। इस लेख का अनुवाद पूर्व में किया जा चुका है उसके अनुसार इस लेख में आठवीे शताब्दी के इंद्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है। डॉ. सुधाकर पाण्डेय ने इस शिलालेख को छठवीें शताब्दी का माना है। इसी प्रकार मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चंद्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ। इपके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है। तद्नुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियां थी। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक हुआ। पद्मा से सिंह तुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया।

मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ है। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दृसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरूष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगाऱ्यमुना की मूर्ति स्थित है। मुर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देता है। उनके पार्श्व में दो नारी प्रतिमा है। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मूर्ति है। महामहोपाध्याय गोपीनाथ राव द्वारा लिखित ''आक्नोग्राफी ऑफ इंडिया'' तथा आर. आर. मजुमदार की ''प्राचीन भारत'' में इस दृश्य का चित्रण मिलता है। किंवदंति है कि मंदिर के गर्भगृह में श्रीराम के अनुज लक्ष्मण के द्वारा स्थापित लक्ष्यलिंग स्थित है। इसे लखेश्वर और लखने वर महादेव भी कहा जाता है क्योंकि इसमें एक लाख लिंग है। इसमें एक पातालगामी लक्ष्य छिद्र है जिसमें जितना भी जल डाला जाय वह उसमें समाहित हो जाता है। इस लक्ष्य छिद्र के बारे में कहा जाता है कि मंदिर के बाहर स्थित कुंड से इसका सम्बंध है। इन छिद्रों में एक ऐसा छिद्र भी है जिसमें सदैव जल भरा रहता है। इसे ''अक्षय कुंड'' कहते हैं। स्वयंभू लक्ष्यलिंग के आस पास वर्तुल योन्याकार जलहरी बनी है। मंदिर के बाहर परिक्रमा में राजा खड्गदेव और उनकी रानी हाथ जोड़े स्थित हैं। प्रति वर्ष यहां महाशिवरात्रि में मेला लगता है। कदाचित् इसी कारण इस नगर को ''काशी'' के समान मान्यता है। कवि बटुसिंह चौहान इसकी महिमा का बखान करते हुये कहते हैं :

जो जाये स्नान करि, महानदी गंग के तीर।
लखनेश्वर दर्शन करि,कंचन होत शरीर।।
सिंदूरगिरि के बीच में, लखनेश्वर भगवान।
दर्शन तिनको जो करे, पावे परम पद धाम।।

पंडित मालिकराम भोगहा कृत ''श्री शबरीनारायण माहात्म्य'' के पांचवें अध्याय के ९५-९६ श्लोक में लक्ष्मण जी श्रीरामचंद्रजी से कहते हैं :- हे नाथ ! मेरी एक इच्छा है उसे आप पूरी करें तो बड़ी कृपा होगी। रावण को मारने के लिये हम अनेक प्रयोग किये। यह एक शेष है कि यहां ''लक्ष्मणेश्वर महादेव'' की स्थापना आप अपने हाथ कर देते तो उ>शम होता :-

रावण के वध हेतु करि चहे चलन रघुनाथ
वीर लखन बोले भई मैं चलिहौं तुव साथ।।
वह रावण के मारन कारन किये प्रयोग यथाविधि हम।
सो अब इहां थापि लखनेश्वर करे जाइ वध दुश्ट अधम।।

यह सुन श्रीरामचंद्रजी ने बड़े २ मुनियों को बुलवाकर शबरीनारायण के ईशान कोण में वेद विहित संस्कार कर लक्ष्मणेश्वर महादेव की स्थापना की :-

यह सुनि रामचंद्रजी बड़े २ मुनि लिये बुलाय।
लखनेश्वर ईशान कोण में वेद विहित थापे तहां जाय।। ९७ ।।
....और अनंतर अपर लिंग रघुनाथ। थापना किये अपने हाथ।
पाइके मुनिगण के आदेश। चले लक्ष्मण ले दूसर देश।।
अर्थात् एक दूसरा लिंग श्रीरामचंद्रजी ने अपने नाम से अपने ही हाथ स्थापित किया, जो अब तक गर्भगृह के बाहर पूजित हैं।

आंचलिक कवि श्री तुलाराम गोपाल ने अपनी पुस्तक ''शिवरीनारायण और सात देवालय'' में इस मंदिर की महिमा का बखान किया है :-

सदा आज की तिथि में आकर यहां जो मुझे गाये।
लाख बेल के पत्र, लाख चावल जो मुझे चढ़ाये।।
एवमस्तु! तेरे कृतित्वके क्रम को रखे जारी।
दूर करूंगा उनके दुख, भय, क्लेश, शोक संसारी।।

इंदलदेव मंदिर

नगर के मध्य माझापारा में प्राचीन गढ़ी से लगा अत्यंत प्राचीन ईंट से बना पश्चिमाभिमुख मूर्ति विहीन लेकिन मूर्तिकला से सुसज्जित इंदलदेव का मंदिर है। इंदल शब्द इंद्र का अपभ्रंश हैं अत: इसे इंद्रदेव कहना अधिक उपयुक्त है। इंद्रदेव शब्द का उल्लेख एक राजा के रूप में लक्ष्मणेश्वर मंदिर के सभा मंडप की दक्षिण दीवार पर लगे शिलालेख में मिलता है। इस मंदिर का पश्चिमाभिमुख होना आश्चर्य की बात है। २ कि. मी. की दूरी पर स्थित शिवरीनारायण में भी चंद्रचूड़ महादेव और केशवनारायण का मंदिर पश्चिमाभिमुख है। इस मंदिर के द्वार पर लक्ष्मणेश्वर मंदिर के प्रवेश द्वार की तरह गंगाऱ्यमुना की मूर्ति स्थित है। द्वार के उपरी भाग में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमा स्थित है। यह मंदिर केंद्रीय पुरातत्व संस्थान के अंतर्गत है। सुरक्षा की दृष्टि से विभाग द्वारा प्राचीर का निर्माण कराया गया है। यदि लक्ष्मणेश्वर मंदिर के अपठ्य शिलालेख का अनुवाद हो जाये तो यहां की प्राचीनता की सही जानकारी मिल सकती है। यहां खुदाई में अनेक मूर्तियां मिली है। इसके अलावा भी यहां अनेक मंदिर है। शिवशक्ति मंदिर दुर्लभ पंचमुखी हनुमान और अष्टमुखी शिव से युक्त है। अत्यंत प्राचीन पुरातात्विक महत्व के मंदिरों और मूर्तियों के बावजूद यह नगर उपेक्षित हैं।

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