Friday, November 30, 2007

जनकपुर के हनुमान

मेला मैदान के अंतिम छोर पर साधु-संतों के निवासार्थ एक मंदिर है। रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी यहीं आकर नौ दिन विश्राम करते हैं। इसीलिए इसे जनकपुर कहा जाता है। प्राचीन साहित्य में जिस सिंदूरगिरि का वर्णन मिलता है, वह यही है। इसे ''जोगीडिपा'' भी कहते हैं। क्योंकि यहां ''योगियों'' का वास था। महंत अर्जुनदास की प्रेरणा से भटगांव के जमींदार ने यहां पर योगियों के निवासार्थ भवन का निर्माण संवत् १९२७ में कराया। स्वामी अर्जुनदास की प्रेरणा से संवत् १९२८ में श्री बैजनाथ साव, चक्रधर, बोधराम और अभयराम ने यहां एक हनुमान जी की भव्य मूर्ति का निर्माण कराया। द्वार पर एक शिलालेख है जिसमें हनुमान मंदिर के निर्माण कराने का उल्लेख है। जनकपुर में एक बहुत सुंदर उपवन था जिसके निर्माण और देखरेख का कार्य महंत अर्जुनदास द्वारा कराया जाता था। बाद के महंतों ने भी इस परंपरा का निर्वहन किया। आज देखरेख के अभाव में यहां का भवन जर्जर हो गया है, बाउंड्री की दीवार धसक गयी है और बागीचा नश्ट हो गया है। साल में दो बार क्रम श: रथयात्रा और द शहरा में लोग यहां आते हैं, भोश दिनों में यहां कोई नहीं आता। लेकिन हनुमान जी का मंदिर अच्छी हालत में है।

महंत अर्जुनदास को सिंदूरगिरि से बहुत लगाव था। वहां प्रतिदिन जाना उनकी दिनचर्या बन गया था। पंडित मालिकराम भोगहा उनके बारे में लिखते हैं-आपको हनुमान जी का बड़ा इश्ट (इष्ट) था और रामायण की कथा में सतत् अपनी अभिरूचि दिखाया करते थे। आपकी दिन और रात्रिचर्या इस प्रकार थी। चार बजे प्रात:काल प्रत्येक ऋतु में स्नानकर हनुमान जी की पूजा करना, अनन्तर आठ बजे दिन तक रामस्तवराज का पाठ विश्णु (विष्णु) महामंत्र के अनुष्ठान में पगे रहकर शुभकामना और वासना का संस्कार किया करते थे। अनन्तर शबरीनारायण के दर्शन को आते और अपने हाथ से सुन्दर सामयिक पत्र, पुष्प और फल-फूल आदि अर्पण कर चरणामृत ले श्रीरामचन्द्र जी के मंदिर आते थे। उसी तरह वहां भी दर्शन कर और साधुओं को दण्डवत प्रणाम कर जगन्नाथ जी के मंदिर की शोभा बढ़ाते थे।

अब इधर उनको मठ का काम यह देखना पडता था कि शबरीनारायण के मंदिर, रामचन्द्र जी के मंदिर और मठ के भंडार में क्या क्या सामान गया। जब-२ जिस-२ ऋतु में नई वस्तु कहीं से आती, बिना भगवान के भोग लगाये अपने मुख में डालना उन्हें वर्जित था। अनन्तर १० बजे के भीतर जोगीडीपा जिसे ``जनकपुर`` और सिंदूरगिरि भी कहते हैं जाया करते; वहां हनुमान जी का दर्श्शन (दर्शन) और वहां का उद्यान निरीक्षण कर १२ बजे लौटकर पंगति में शामिल हुवा करते थे। २ घंटा आराम कर फिर राम राम कहते रामायण की कथा सुनाते और चार बजे फिर वही जोगीडीपा और शौच स्नान कर संध्या के पहिले मठ में आ जाया करते थे। लंबी तुलसी की माला हाथ में लिये वासुदेव मंत्र को स्मरण करते शबरीनारायण की परिदक्षिणा कर भीतर दर्शन करने आते और ``जय राम रमा रमन शमन भवताप भयाकुल पाहि जनम्`` यह स्तोत्र पढ़ते-२ चंवर डुलाते और चरणामृत पानकर रामचन्द्र जी के मंदिर में आते। उसी तरह प्रणाम अभिवादन के अनंतर मठ में आ जगन्नाथ जी के तथा अन्य मूर्तियों के दर्शन कर अपने नित्य कर्म में प्रवृ>श होते थे। यह चरित्र प्राय: उनके जीवनभर मैं देखता ही रहा। अब इन्हें सिद्ध कहें या देवता ?

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