Friday, November 30, 2007

साहित्यिक तीर्थ

सर्व विदित है कि भारत का साहित्यिक तीर्थ सदा से का शी रहा है। क्योंकि यहां भारतेन्दु हरि चंद्र निवास करते थे। का शी उनकी साधना स्थली रही है। लेकिन सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चंद्र के सहपाठी और विजयराघवगढ़ के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह सन् १८८० से १८८२ तक धमतरी और उसके बाद सन् १८८२ से १८८९ तक वे शिवरीनारायण में तहसीलदार रहे। यह उनकी कार्यस्थली भी रहा है। यहां उन्होंने लगभग आधा दर्जन से भी अधिक पुस्तकों का प्रणयन किया है। उन्होंने यहां काशी के ''भारतेन्दु मंडल'' की तर्ज पर ''जगन्मोहन मंडल'' के नाम से एक साहित्यिक संस्था बनाया था। इसके माध्यम से वे छत्‍तीसगढ़के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में पिरोने का सद्कार्य किया और उन्हें लेखन की एक दिशा दी। यहां हमेशा साहित्यिक समागम होता था और अन्यान्य साहित्यकार यहां आते थे। उस काल के रचनाकारों में पंडित हीराराम त्रिपाठी, पं. मालिकराम भोगहा, गोविंदसाव (सभी शिवरीनारायण), पंडित अनंतराम पांडेय (रायगढ़), पंडित पुरूषो>शमप्रसाद पांडेय (मालगुजार बालपुर), पंडित मेदिनीप्रसाद पांडेय (परसापाली), वेदनाथ शर्मा (बलौदा), जगन्नाथप्रसाद भानु (बिलासपुर) आदि प्रमुख थे। पंडित शुकलाल पांडेय ''छत्‍तीसगढ़गौरव'' में लिखते हैं :-

नारायण, गोपाल मिश्र, माखन, दलगंजन।
बख्तावर, प्रहलाद दुबे, रेवा, जगमोहन।
हीरा, गोविंद, उमराव, विज्ञपति, भोरा रघुवर।
विष्णुपुरी, दृगपाल, साव गोविंद, ब्रज गिरधर।
विश्वनाथ, बिसाहू, उमर नृप लक्षमण छ>शीस कोट कवि।
हो चुके दिवंगत ये सभी प्रेम, मीर, मालिक सुकवि।।

बाद में पंडित लोचनप्रसाद पांडेय, काव्योपाध्याय हीरालाल, रामदयाल तिवारी, नरसिंहदास वैष्णव, सुन्दरलाल शर्मा, पंडित शुकलाल पांडेय यहां आये। डॉ. बल्देवप्रसाद मिश्र, सरयूप्रसाद त्रिपाठी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मुक्तिबोध, डॉ. प्यारेलाल गुप्त, द्वारिकाप्रसाद तिवारी आदि अन्यान्य कवि और साहित्यकार यहां आकर इस सांस्कृतिक और साहित्यिक नगरी को प्रणाम किया। मुझे इस बात का गर्व है कि यह मेरी भी जन्म स्थली है। मेरा रोम रोम इस धरती का ऋणी है। पंडित शुकलाल पांडेय भी अपने माता पिता और दादा के साथ यहां रहे... और एक प्रकार से उन्हें भी साहित्यिक संस्कार यहीं से मिला था। आगे चलकर उनका परिवार रायपुर जिलान्तर्गत सरसींवा में बस गया।

पंडित मालिकराम भोगहा यहां के मालगुजार और पुजारी पंडित यदुनाथ भोगहा के ज्येष्ठ सुपुत्र थे। उन्होंने ठाकुर जगमोहनसिंह को न केवल अपना साहित्यिक गुरू ही बनाया बल्कि उन्हें अपना सब कुछ माना है। उन्होंने अपनी एक मात्र प्रकाशित रचना ''राम राज्य वियोग'' नाटक को ठाकुर साहब को समर्पित किया है। उन्होंने लिखा है -''कदाचित् आपको स्मरण हो वा नहीं, यह मैं नहीं कह सकता, पर मुझे भलिभांति स्मरण है कि, मैंने कुछ विद्या धन महाराज से इस प्रतिज्ञा पर ऋण लिया था कि उसे जीवन के मध्य में जब अवकाश पाऊं तब मूल का मूल लौटाय दंू।'' वे आगे लिखते हैं :-''इस व्यवहार की न कोई लिखमत है, न कोई साक्षी, और न वे ऋणदाता ही रहे, केवल सत्य धर्म ही हमारे उस सम्बंध का एक माध्यम था और अब भी वही हे। उसी की उ>ोजना से मैं आपको इसे समर्पण करने की ढिठाई करता हूं। क्योंकि पिताजी की सम्पि>श का अधिकारी पुत्र ही होता है, विशेष यह कि- पिता, गुरू आदि उपमाओं से अलंकृत महाराज के स्थान में आपको ही जानता हूं। जिस तरह मैंने अपना सत्य धर्म स्थिर रख, प्राचीन ऋण से उद्धार का मार्ग देखा, उसी तरह यदि आप भी ऋणदाता के धर्म का अवलम्ब कर इसे स्वीकार करेंगे, तो मैं अपना अहोभाग्य समझंूगा।''

भोगहा जी ठाकुर साहब के प्रिय शिष्य थे। उनके संरक्षण में उन्होंने साहित्यिक साधना शुरू की और लगभग आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों का लेखन पूरा किया। उन्होंने रामराज्यवियोग, सती सुलोचना और प्रबोध चंद्रोदय (तीनों नाटक), स्वप्न सम्पि>श (नवन्यास), मालती, सुर सुन्दरी (दोनों काव्य), पद्यबद्ध शबरीनारायण महात्म्य आदि ग्रंथों की रचना की। उनका एक मात्र प्रकाशित पुस्तक रामराज्यवियोग है, शेष सभी अप्रकाशित है। यह नाटक प्रदेश का प्रथम हिन्दी नाटक है। इसे यहां मंचित भी किया जा चुका है।
पंडित हीरराम त्रिपाठी को उनकी साहित्यिक प्रतिभा से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने कसडोल से शिवरीनारायण ले आये और तहसील में खजांची बना दिये थे। त्रिपाठी जी ठाकुर जगमोहनसिंह के अलावा महंत गौतमदास से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने श्री शबरीनारायण माहात्म्य का संस्कृत से ब्रज भाषा में अनुवाद किया और जो प्रजाहितैषी प्रेस राजनांदगांव से संवत् १९४४ में प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने लिखा है कि शबरीनारायण माहात्म्य को महंत गौतमदास की इच्छा से संस्कृत से ब्रजभाषा में अनुवाद किया गया है।

शिवरीनारायण कथा गौतमदास महंत।
लखि इच्छा भाषा रच्यो द्विज हीरा यह ग्रंथ।।

जब तहसील मुख्यालय शिवरीनारायण से जांजगीर लाया गया तब वे भी परिवार सहित जांजगीर आ गये थे लेकिन उसके बाद उनका परिवार कहां गया इसकी जानकारी नहीं मिलती।

शिवरीनारायण के अन्य साहित्यकारों में श्री गोविंदसाव भी थे। पं. शुकलाल पांडेय लिखा है :-

रामदयाल समान यहीं हैं अनुपम वाग्मी।
हरीसिंह से राज नियमके ज्ञाता नामी।
गोविंद साव समान यहीं हैं लक्ष्मी स्वामी।
हैं गणेश से यहीं प्रचुर प्रतिभा अनुगामी।
श्री धरणीधर पंडित सदृश यहीं बसे विद्वान हैं।
हे महाभाग छत्‍तीसगढ़! बढ़ा रहे तव मान हैं।।

हालांकि उनकी कोई रचना अब उपलब्ध नहीं है लेकिन उनकी कोई साहित्यिक उपलब्धि अवश्य रही होगी तभी तो पांडेय जी ने उनकी गणना साहित्यकारों में की है। मुझे गौरव है कि मैं गोविंदसाव का बहुत छोटा पौध हूं।

No comments: