Friday, November 30, 2007

शिवरीनारायण के भोगहा

चित्रोत्पला गंगा के तट पर स्थित प्राचीन और धार्मिक तीर्थ स्थल शिवरीनारायण वर्तमान जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत स्थित है। मठ-मंदिर और महानदी यहां की विशेषता है। महानदी को ही चित्रोत्पला-गंगा कहा गया है :-

पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।

पुरूषो>शम तत्व में इसे महापुण्या, सर्व पापहरा और शुभा आदि कहा गया है :-

नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा शुभा।।

...और पंडित मालिकराम भोगहा ने इस नदी में स्नान करने को मोक्षदायी बताया है :-


रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल न्हाय।
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय।।

'श्री शिवरीनारायण-सिंदूरगिरि माहात्म्य' में कवि श्री बटुकसिंह चौहान गाते हैं :-

क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले निर्धन को धनवान।।
महानदी गंग के संगम में जो किन्हे पिण्डकर दान।
सो जैहें बैंकुंठ को, कही बुटु सिंह चौहान।।

ऐसे पुण्यतोया नदी के तट पर स्थित नारायण धाम में संत और सज्जन लोग ही बसते हैं। पंडित हीराराम त्रिपाठी भी यही कहते हैं :-

चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम।।

ऐसे सज्जन लोगों में शिवरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोगहापारा के मालगुजार पंडित यदुनाथ भोगहा एक हैं। सन् १८८४ में प्रकाशित सज्जनाष्टक में ठाकुर जगमोहनसिंह ने लिखा है :-

बन्दो आदि अनन्त शयन करि शबरनारायण रामा।
बैठे अधिक मनोहर मंदिर कोटि काम छबिधामा।।
जिनको राग भोग करि निसुदिन सुख पावत दिन रैनू।
भोगहा श्री यदुनाथ जू सेवक राम राम रत चैनू।।
है यदुनाथ नाथ यह सांचों यदुपति कला पसारी।
चतुर सुजन सज्जन सत संगत सेवत जनक दुलारी।।
दिन दिन दीन लीन मुइ रहतो कृषी कर्म परवीना।
रहत परोस जोस तजि मेरे हैं द्विज निपट कुलीना।।

भोगहा जी बड़े सुहृदय, भक्त वत्सल और प्रजा वत्सल थे। सन् १८८५ में यहां बड़ा पूरा (बाढ़) आया था जिसमें जन धन की बड़ी हानि हुई थी। इस समय भोगहा जी ने बड़ी मद्द की थी। शिवरीनारायण तहसील के तहसीलदार और कवि ठाकुर जगमोहनसिंह ने तब ''प्रलय'' नाम की एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के 'समर्पण' में वे भोगहा जी के बारे में लिखते हैं :-''भोगहा जी आप वहां के प्रधान पुरूष हो। आपकी सहायता और प्रजा पर स्नेह, जिसके वश आपने टिकरीपारा की प्रजा का प्राणोद्धार ऐसे समय में जब चारांे ओर त्राहि त्राहि मची थी, किया था-इसमें सविस्तार वर्णित है। यह कुछ केवल कविता ही नहीं वरन् सब ठीक ठाक लिखा है।'' देखिये उनका पद्य :-
पुरवासी व्याकुल भए तजी प्राण की आस
त्राहि त्राहि चहुँ मचि रह्यो छिन छिन जल की त्रास
छिन छिन जल की त्रास आस नहिं प्रानन केरी
काल कवल जल हाल देखि बिसरी सुधि हेरी
तजि तजि निज निज गेह देहलै मठहिं निरासी
धाए भोगहा और कोऊ आरत पुरवासी।। ५२ ।।
कोऊ मंदिर तकि रहे कोऊ मेरे गेह
कोऊ भोगहा यदुनाथ के शरन गए लै देह
शरन गए लै देह मरन तिन छिन में टार्यौ
भंडारो सो खोलि अन्न दैदिन उबार्यौ
रोवत कोऊ चिल्लात आउ हनि छाती सोऊ
कोउ निज धन घर बार नास लखि बिलपति कोऊ।। ५३ ।।

श्री यदुनाथ भोगहा को मालगुजार, माफीदार और पुजारी बताया गया है। बाढ़ के समय उन्होंने बड़ी मद्द की थी। टिकरीपारा (तब एक उनकी मालगुजारी गांव) में स्वयं जाकर वहां के लोगों की सहायता की थी। ठाकुर साहब ने लिखा है :-''ऐसेे जल के समय में जब पृथ्वी एकार्णव हो रही थी, सिवाय वृक्षों की फुनगियों के और कुछ दिखाई नहीं देता था और जिस समय सब मल्लाहों का टिकरीपारा तक नौका ले जाने में साहस टूट गया था, आपका वहां स्वयं इन लोगों को उत्साह देकर लिवा जाना कुछ सहज काम नहीं था। यों तो जो चाहे तर्क वितर्क करें पर जिसने उस काल के हाल को देखा था वही जान सकता है।'' एक दोहा में इसका उन्होंने वर्णन किया है :-

पै भुगहा हिय प्रजा दुख खटक्यौं ताछिन आय।
अटक्यों सो नहिं रंचहू टिकरी पारा जाय।। ६३ ।।
बूड़त सो बिन आस गुनि लै केवट दस बीस।
गयो पार भुज बल प्रबल प्रजन उबार्यौ ईभा।। ६४ ।।

इस सद्कार्य से प्रभावित होकर ठाकुर जगमोहनसिंह ने इनकी प्रशंसा अंग्रेज सरकार से की थी और उन्हें पुरस्कार भी देने की सिफारि श की थी मगर अंग्रेज सरकार ने ध्यान नहीं दिया था। उन्होंने लिखा है :-''आपका इस समय हमारी सरकार ने कुछ भी सत्कार न कियाऱ्यद्यपि मैंने यथावत् आपकी प्रशंसा अपने अधिकार के सम्बंध में श्रीयुत् डिप्टी कमिश्नर बिलासपुर को लिखी थी तथा सोच का स्थान है कि उस पर भी अद्यापि ध्यान न हुआ-'नगार खाने में तूती की आवाज कौन सुनता है ?'-आदि आपकी सहायता, प्रजागण पर स्नेह और उनका उपकार जगत ने स्वीकार किया और उनकी भी प्रीति आप पर निष्कपटता के साथ है तो इससे बढ़ के और पारितोषिक नहीं। क्यों कि 'धनांनि जीवित्रजैव परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत तन्निमि>ो वरं त्यागि विनाशे नियते सति' और भी 'विभाति काय: करूणा पराणाम्परोपकारैर्नतु चन्दनेन' ऐसा प्राचीन लोग कह आये हैं।' इस प्रकार उनकी प्रशंसा कर ठाकुर साहब ने उनके सुखी रहने की कामना की है :-
सुखी रहैं ये सब पुरवासी खलगन सुजन सुभाए।
श्री यदुनाथ जियै दिन कोटिन यह मन सदा कहाए।। १०९ ।।

भोगहा जी के पुत्र पं. मालिकराम और श्रीनिवास हुये। भोगहा जी के अनुरोध पर ठाकुर जगमोहनसिंह ने मालिकराम को दीक्षित करने का गुरू>शर दायित्व स्वीकार किया। अल्प वयस्क और मातृहीन मालिक को जैसे सब कुछ मिल गया। उन्होंने ठाकुर साहब से संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू भाषा के अलावा कविता करने की विधि उनसे सीखी। इस प्रकार उन्होंने बचपन से ही एक सुप्रसिद्ध विद्वान और कवि के साथ रहने के कारण अलौकिक योग्यता प्राप्त कर ली। आगे चलकर ठाकुर साहब ने उन्हें संगीत और गायन की शिक्षा दिलवायी और मराठी तथा उड़िया भाषा का अभ्यास कराया। इस तरह वे अवस्थानुरूप दीक्षित हुए और मंदिर पूजा के बाद कविताई की ओर उन्मुख हुए। वे पहले आलंकारिक भाषा में श्रृंगार रस में कविता लिखने लगे। उस समय की कई कविताएं ऐसी सरस और प्रसाद गुणयुक्त थी जिन्हें ठाकुर साहब ने अपने श्यामास्वप्न और श्यामालता में स्थान दिया है। एक पद्य प्रस्तुत है :-
यहि द्वै दिनको दुनिया मनमोहन ना इतनो इतरैबो करो।
इत आइबो को न कहौं तुमसो सपनेहुं भला बतरैबो करो।।
तुअ प्रेम के प्यासे रहे नर जे तिनको अस ना बिसरैबो करो।
पुनि दूसरे तीसरे चौथेहुं पै 'द्विजराज' कबौं कबौं ऐबो करो।।

मालिकराम कविता में अपना नाम 'द्विजराज' लिखते थे। उनकी आलंकारिक भाषा के कारण लोग उन्हें 'अलंकारी' भी कहते थे। शबरीनारायण मंदिर के पुजारी और भोग लगाने वाले होने के कारण वंश परंपरा से उनके पूर्वज 'भोगहा' कहाते आ रहे हैं। मालिकराम जी मृदुभाषी, नम्र, सुशील और सदाचारी थे। उनमें अपार पितृभक्ति थी। वे हृष्ट पुष्ट और दीर्घकाय व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक और मनमोहक था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने उनके बारे में लिखा है-''पूज्य मालिकराम मेरे बड़े भाई पूज्य पंडित पुरूषो>शमप्रसाद जी के परम स्नेही मित्र थे। अत: उनमें और हममें बड़ी घनिष्टता थी। पंडित मालिकराम हमारे इस प्रांत में एक सुप्रसिद्ध और दर्शनीय पुरूष थे। जिन्होंने उन्हें एक बार भी देखा होगा वे उनकी माधुरी मूर्ति को जन्मभर न भूलेंगे। क्षणकाल भी जिन्होंने उनसे वार्तालाप या सम्भाषण किया होगा वे उनकी नम्रता, शीलता, वचनचातुर्य एवं मधुर भाषिता को आजन्म स्मरण करते रहेंगे। उनकी सच्चरित्रता की धार्मिकता की प्रशंसा हम क्या अंगरेज पादरी तक किया करते थे। वे बालकों के साथ बातचीत कर बहुत खुश होते थे। कभी कभी उनके साथ खेला भी करते थे। ग्रामीण किसानों और उन आदमियों से जिनसे हम असभ्य करकर घिनाते हैं, वे उनसे बड़े प्रेम और आदर से मिला करते थे। वे ग्रामीण भाषा बड़ी उ>शमता से बोल लेते थे। कभी कभी ग्राम्यगीत गाकर एवं उचित हाव भाव द्वारा वे हजारों नर-नारियों के मन को अपनी ओर आकषित कर लेते थे। उनकी साहित्य सेवा और मातृ भाषानुराग आदर्श था। स्वदेश भक्ति तो उनकी नस नस में भरी थी। उनकी विद्वता और काव्य शक्ति की प्रशंसा स्वयं ठाकुर जगमोहनसिंह ने भी की थी।'

मालिकराम जी की स्वदेश निष्ठा इस बात से उजागर होती है कि उन्होंने यहां के मंदिर में भ्रष्ट विदेशी चीनी की मिठाई का चढ़ावा रोक दिया था। इससे न केवल शिवरीनारायण में बल्कि आसपास के सैंकड़ों गांवोें में विदेशी चीनी का व्यापार बंद हो गया था।

संवत् १९२७ में पंडित यदुनाथ भोगहा के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में जन्मे मालिकराम एक कवि और नाटककार थे। उन्होंने एक नाटक मंडली बनायी थी। उन्होंने अनेक नाटकों की रचना की थी जिसमें रामराज्यवियोग (प्रकाशित), प्रबोध चंद्रोदय और सती सुलोचना प्रमुख है। अन्य रचनाओं में स्वप्न सम्पि>श (नवन्यास),पद्यबद्ध शबरीनारायण माहात्म्य, मालती, सुरसुंदरी (काव्य) प्रमुख है। उनकी नाटकों का कई स्थानों पर सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया था। उनकी काव्य रचना प्रकाश में नहीं आने के कारण वे एक कवि के रूप में चर्चित नहीं हो सके। तत्कालीन साहित्य में एक नाटककार के रूप में उनका उल्लेख मिलता है। ३० नवंबर सन् १९०९ में ३९ वर्ष की अल्पायु में उनका निधन हो गया। तब पंडित शुकलाल पांडेय ने उनके बारे में लिखा था :-

हा ! मालिक ! हा ! छि>शास्गढ़ के सुजन शिरोमणि ! साधो !
हा ! हिन्दी के चतुर सुलेखक ! शुचि सेवक श्री माधो !
हा ! स्वदेश कल्याण सतत रत ! हा ! बहुभाषा भाषी !
हा ! कर्मिष्ठ उदार विप्रवर ! सद् भाजन गुण रासी ।। १ ।।
हा ! साहित्य वाटिका माली ! हा ! गुणिजन सतसंगी !
हा ! शुचि दया धरम परायण ! हा ! विद्यारस रंगी !
हा ! हा ! वृद्ध पिता के लकुटी ! हा ! नयनन के तारे !
निरलम्ब शबरीनारायण तजि के कहां सिधारे ।। २ ।।

प्राचीन काल में शिवरीनारायण दक्षिण जाने और जगन्नाथ पुरी जाने के मार्ग में स्थित था। इस मार्ग से पदयात्रा करके अनेक राजा-महाराजा के जाने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। रीवा के महाराजा ने भी इस मार्ग से पुरी की यात्रा की थी। आज भी रीवा क्षेत्र के यात्री पहले शिवरीनारायण फिर जगन्नाथ पुरी की यात्रा करते हैं। कवि शुकलाल पांडेय गाते हैं :-
पावन मेले यथा चंद्र किरणें, सज्जन-उर।
अति पवित्र त्यों क्षेत्र यहां राजिम, शौरिपुर।
शोभित हैं प्रत्यक्ष यहां भगवन्नारायण ।
दर्शन कर कामना पूर्ण करते दर्शक गण।
मरे यहां पातकी मनुज भी हो जाते ध्रुव मुक्त हैं।
मुनिगण कहते, युग क्षेत्र ये अतिशय महिमा युक्त हैं।। १२१ ।।
इतने पुण्य क्षेत्र की यात्रा और भगवान शबरीनारायण का दर्शन कौन नहीं करना चाहेगा ? एक किंवदंति के अनुसार रत्नपुर के राजा जाज्वल्यदेव यहां पधारे। कवि के इस पद्य से इसकी पुष्टि होती है :-
नारायण के पाद-दर्शन रूचि प्यारे।
भूतलेन्द्र जाज्वल्यदेव महाराज सिधारे।

भगवान नारायण के दर्शन कर प्रसाद लेकर देवालय से बाहर आये और जैसे ही वे प्रसाद ग्रहण करने को उद्यत हुए, प्रसाद में उन्हें केश दिखाई दिया। नाराज होकर भोगहा जी से वे पूछने लगे :-
कहा भूप ने-'शीघ्र भोगहा जी ! दो उ>शर।
जमे हुए क्या केश शौरिनारायण शिर उपर ?'

आश्चर्य और भय मिश्रित स्वर में अपने ईश का ध्यान धर के भोगहा जी ने उ>शर दिया:

हां महाराज ! भगवान के सिर पर शोभित केश हैं।
कल मैं प्रमाण निज कथन का दंूगा, आप नरेश हैं।

भोगहा जी बडे ईश्वर भक्त थे। उनकी भगवान शबरीनारायण की भक्ति पर अगाध आस्था थी। वे उनकी इस प्रकार आराधना करने लगे :-

दीनबन्धु-सुखसिन्धु मंगलायतन दयामय !
गुण अनन्त भगवन्त, सन्तप्रिय, रमाकान्त जय !
स्वजनोद्धारक, विश्व प्रकाशक पाप प्रणाशक !
खल-दल-त्रासक, मधु-मुर-नाशक, त्रिभुवन-शासक !
जय ! तरूण अरूण सरसिज नयन ! आर्ति हरण वारिद वरण !
जय शबरीनारायण प्रभो ! विश्व भरण ! मैं हूं शरण !! १२७ ।।
पार्थ-भीष्म-हरिचन्द्र प्रतिज्ञा तुमने राखी।
श्रुति पंराण सुर सन्त, शंभु मुनि सब हैं साखी।
कौन बात है छिपी आप से गुणागार से ।
मैंने निजकृत दोष ढांकने के विचार से।
कहकर अनहोनी बात प्रभु की, मैंने नृप वंचना।
मम वचन अन्यथा हो नहीं सानुरोध है प्रार्थना।। १२९ ।।

इस प्रकार स्तुति करके रात्रि में विश्राम करने लगे। रात्रि में भोगहा जी को भगवान दर्शन देकर कहने लगे-'सच होवेगा तेरा कथन भक्त ! न हो चिंतित महा।' प्रात: जब भोगहा जी आरती करने पहुंचे तब उन्हें देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि भगवन्नारायण के सिर में काले, घने और घुंघरालु केश उग आये हैं। राजा जाज्वल्यदेव ने भी इस सत्य को देखा लेकिन उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उसने सोचा कि भोगहा जी बड़े मायावी हैं। भय के कारण हो सकता है भगवान के सिर में नकली केश लगा दिये हों ?... और इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने भोगहा जी के मना करने के बावजूद उन्होंने भगवान के केश उखाड़ लिये-केश के उखड़ते ही दूध की धार निकलने लगी जिससे राजा पूरी तरह नहा लिये। जब तक कोई कुछ समझ पाता, सबने देखा, राजा को उनके कर्मो की सजा मिल गई-उन्हें कुष्ठ रोग हो गया..? कवि की बानगी पेश है :-
उनने निश्चय किया भोगहा हैं मयावी।
हो जाती त्यों बुद्धि यथा होती है भावी।
केश उखाड़ा एक निकट जा शिर के उनने।
रिक्त स्थान से धार दूध की लगी निकलने।
नृप दिशि धारा बहने लगी, नहा चुके वे क्षीर में।
द्रुत दुष्ट कुष्ठ फिर हो गया उनके पुष्ट शरीर में।। १३२ ।।

राजा जाज्वल्यदेव को सत्यता का ज्ञान हो गया और वे भगवान शबरीनारायण की अनेक प्रकार की स्तुति करने लगे :-
धर त्रिमूर्ति हे देव ! जगन्नायक जग कारण !
करते रहते सृष्टि-सृजन-पालन-संहारण।
यद्यपि सब पर कृपा तुम्हारी नित समान है।
तदपि भक्त पर अधिक यही तब गुण प्रधान हैं।
होते प्रपूर्ण तेरी दया से भक्तों के काम हैं।
जय शबरीनारायण प्रभो ! तुम्हें अनेक प्रणाम हैं।। १३६ ।।

उनकी स्तुति और आर्त पुकार से भगवन्नारायण प्रसन्न हुए और उनके अंगुठा और तर्जनी को छोड़कर शरीर से कुष्ठ रोग मिट गया।
कुष्ठ नष्ट हो गया शौरि गुण कहे न जाते।
तर्जनी और अंगुष्ठ ये दुष्ट कुष्ठयुत ही रहे।

इस घटना से प्रसन्न राजा ने मंदिर के जगमोहन में चढ़कर देखने पर जितने गांव दृष्टिगोचर हुए उसे हरि सेवार्थ मंदिर में अर्पण कर दिये। ये गांव पहले मंदिर के पुजारी भोगहा जी के कब्जे में था बाद में इन गांवों को मठ को सौंप दिया गया। एक मराठी सनद से इसकी पुष्टि होती है। इसके अनुसार शिवरीनारायण के बाजार की चुंगी वसूल करने का अधिकार भी भोगहा लोगों के पास था। यथोचित प्रबंध नहीं करने के कारण एक गांव छोड़कर सभी गांव भोगहा जी ने मठ के महंत को सौंप दिया।
इतने प्राचीन मंदिर के पुजारी और राग भोगादि का दायित्व पिछले अनेक वर्षो से निभाते आ रहे भोगहा परिवार का कोई लिखित इतिहास नहींे है। वे यहां कब और कैसे आये इसकी भी जानकारी नहीं मिलती। पंडित मालिकराम भोगहा ने लिखा है कि उनका परिवार ५४ पु तों से मंदिर के पुजारी हैं। द्वार पर भी पं. रामचंद्र भोगहा का नाम, संवत् १९७४ और ५४ वीं पीढ़ी अंकित है। प्राचीन छत्‍तीसगढ़में उ>शर से जगन्नाथ पुरी की यात्रा करते हुए अनेक ब्राह्मण परिवारों के यहां बस जाने या बसाये जाने की उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। संभव है भोगहा परिवार भी ऐसे ही कोई तीर्थयात्री रहा हो ? भोगहा परिवार के ५७ वीं पीढ़ी के वंशज श्री पूर्णेन्द्र तिवारी से मिली जानकारी के अनुसार उनके ४६ वीं पीढ़ी में पं. हनुसाय भोगहा हुए। उनके दो पुत्र क्रम श: मुकुन्द और बालो हुए। मुकुन्द निर्वं श था लेकिन बालो के दो पुत्र धुसराम और मधुकोट हुए। धुसराम भी निर्वं श रहे और मधुकोट के एक पुत्र कलिराम हुए जिनके तीन पुत्र क्रम श: धीनाराम, पुरूशो>शम और भागीरथी हुए। धीनाराम भी निर्वं श थे। पुरूशो>शम के तीन पुत्र क्रम श: अंजुराज, लोकनाथ और भांभू हुए और भांभू के दो पुत्र सिरधराम और शिवनाथ हुए। ये सब निर्वं श मृत्यु को प्राप्त हुए। ५० वीं पीढ़ी के भागीरथी के दो पुत्र बालाराम और देवनारायण हुए। देवनारायण का एक पुत्र मारकण्डेय निर्वं श हुआ और बालाराम के तीन पुत्र यदुनाथ, टीकाराम और सेवकराम हुए। सेवकराम की एक पुत्री राधा बाई हुई। टीकाराम के एक पुत्र रामे वर भी निर्वं श हुआ। यदुनाथ के दो पुत्र मालिकराम और श्रीनिवास हुए। मालिकराम के एक पुत्र और दो पुत्री हुई, जिसमें एक पुत्री जमा बाई जीवित रही और शेष काल कवलित हो गये। श्रीनिवास भोगहा के दो पुत्र रामचंद्र और तुलसीराम हुए। तुलसीराम के रमेशचंद्र तिवारी और रामचंद्र के हीरालाल और भुवनलाल हुए। हीरालाल जी के एक पुत्र विजयकुमार तिवारी हुए जिनके तीन पुत्र क्रमश: राजेन्द्र, पूर्णेन्द्र और मनोज हैं। भुवनलाल जी के आठ पुत्र क्रमश: सुरेन्द्र, वीरेन्द्र, सुभाष, संतोष, शेखर, राजू ,संजु और हरीश हैं। इसी प्रकार रमेशचंद्र तिवारी के चार पुत्र क्रमश: जनकप्रसाद, भागवतप्रसाद, दीलिपकुमार और दीपककुमार हैं। भोगहा वं श के ५८ वीं पीढ़ी में राजेन्द्र कुमार के तीन पुत्र प्रसन्नजीत, सुधां शु और हिमां शु हैं। सुरेन्द्र कुमार के अमित कुमार, वीरेन्द्र कुमार के हर्शवर्द्धन, भा शांक, अभिनव और अंकित हैं। इसी प्रकार जनकप्रसाद के दो पुत्र चित्रसेन और अजीतसेन तथा भागवत प्रसाद के आ शीश कुमार हैं।

पंडित बालाराम भोगहा ने अनेक परिवार को यहां बसाया था। श्री माखनसाव के दादा श्री धीरसाय और पिता श्री मयाराम और उनके चाचा श्री मनसाराम और सरधाराम साव के परिवार को पं. बालाराम भोगहा (संवत् १८४४ से १८६०) ने ही यहां बसाया था। उनका परिवार पहले लवन जमींदारी के आसनिन गांव फिर हसुवा में रहता था जो भोगहा जी के कहने पर शिवरीनारायण आ गया। बालाराम भोगहा की सोनाखान के जमींदार रामराय से मितानी थी और उनके बारापाली गांव-गिधौरी, घटमड़वा, पुलेनी, कुम्हारी, अमलीडीह, खपरीडीह, टुन्ड्रा, मोहतरा, कोटियाडीह, अमलीडीह, बरपाली और सेमरा की देखरेख भोगहा जी ही करते थे जिसे बाद में एक नीलामी में शिवरीनारायण के महंत ने खरीद लिया था। तब से ये गांव मठ के गांव हैं। उनके पुत्र पंडित यदुनाथ भोगहा का उल्लेख मिलता है। वे यहां के मालगुजार, माफीदार, मंदिर के पुजारी और शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट थे। इसी प्रकार पंडित यदुनाथ भोगहा के पुत्र मालिकराम जी का उल्लेख एक कवि और नाटककार के रूप में हुआ है। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। बालपुर के मालगुजार पंडित पुरूषो>शमप्रसाद पांडेय और पंडित अनंतराम पांडेय से उनकी अच्छी मित्रता थी। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पांडेय ने मालिकराम जी को अग्रज तुल्य माना है और उन्होंने उनकी अलंकारिक शैली को अपनाया था। पंडित रामचंद्र भोगहा की सेमरा के ठाकुर रामकृष्णसिंह से मितानी थी। उनके पौत्र श्री अश्वनीसिंह ने मुझे बताया कि दोनों परिवार में आज भी घनिष्ठता है। श्री विजयकुमार तिवारी शिवरीनारायण नगर पंचायत के प्रथम अध्यक्ष थे और श्री सुरेन्द्र तिवारी ग्राम पंचायत के सरपंच थे। महंत लालदास ने जिस प्रकार महंतपारा में विजियादशमी और मेला लगाने की व्यवस्था की थी, उसी प्रकार पंडित रामचंद्र भोगहा ने भी भोगहापारा में मेला लगाने के लिए सीमेंट की दुकाने बनवायी थी और विजियादशमी मनाने की शुरूवात की थी। लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली थी। बहरहाल, भोगहा परिवार की कीर्ति चारों ओर फैली है और उनके वं शज आज भी मंदिर में भोगराग का कार्य कर रहे हैं।

वंशावली :-

हनुसाय (४६ वीं पीढ़ी)


मुकुन्द (४७ वीं पीढ़ी) कल श ;ठंससवद्ध


धुसराम (४८ वीं पीढ़ी) मधुकोट

कलिराम (४९ वीं पीढ़ी)


धीनाराम पुरूशो>शम भागिरथी (५० वीं पीढ़ी)
,

अंजुराज लोकनाथ भांभू बालाराम (संवत् १८४४-१८६०) देवनारायण (५१ वीं पीढ़ी)


सिरधराम शिवनाथ मारकण्डेय

यदुनाथ (५२ वीं पीढ़ी) टीकाराम सेवकराम

रामे वर राधाबाई
मालिकराम (५३ वीं पीढ़ी) श्रीनिवास

एक पुत्र एवं दो पुत्री
(जमा बाई)
रामचंद्र (५४ वीं पीढ़ी) तुलसीराम
संवत् १९७४
रमे शचंद्र

हीरालाल (५५ वीं पीढ़ी) भुवनलाल
जनक भागवत दीलिप दीपक
विजयकुमार (५६ वीं पीढ़ी)

चित्रसेन अजीतसेन
राजेन्द्र (५७ वीं पीढ़ी) पूर्णेन्द्र मनोज आ शीश


सुरेन्द्र वीरेन्द्र सुभाश संतोश भोखर राजू संजू हरी श

प्रसन्नजीत सुधां शु हिमां शु
(५८ वीं पीढ़ी) हर्शवर्द्धन भा शांक अभिनव अंकित
अमित
- पीढ़ी समाप्त
स्रोत : श्री पूर्णेन्द्र तिवारी

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