Friday, November 30, 2007

महानदी के हीरे

महानदी, छत्तीसगढ़ प्रदेश एवं उड़ीसा की अधिकांश भूमि को सिंचित ही नहीं करती वरन् दोनों प्रदेशों की सांस्कृतिक परम्पराओं को जोड़ती भी है। आज भी छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक परम्पराएं सिहावा से लेकर महानदी के तट पर बसे ऐतिहासिक और पौराणिक नगर सोनपुर, उड़ीसा तक मिलती है। यह भी सही है कि उड़ीसा और पूर्वी छत्तीसगढ़ का सीमांकन महानदी करती है और इसके तट पर बसे ग्रामों में सांस्कृतिक साम्य दिखाई देता है। सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में उड़िया स्ंशस्कृति की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। चाहे मेला मड़ई हो या रथयात्रा, उसमें उड़ीसा का उखरा प्रमुख रूप से मिलता है। इसी प्रकार जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा उड़ीसा का एक प्रमुख पर्व है जिसे छत्तीसगढ़ के अन्यान्य ग्रामों में सारंगढ़, रायगढ़, चंद्रपुर, सक्ती, रायपुर, राजिम, शिवरीनारायण, बिलासपुर और बस्तर में बड़े धूमधाम से आज भी मनाया जाता है। महानदी मे तट पर बसे सांस्कृतिक केंद्रों क्रमश: सिहावा, सिरपुर, राजिम, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर, पुजारीपाली, संबलपुर और सोनपुर के अलावा आरंग, सरायपाली, बसना, सारंगढ़, रायगढ़, बालपुर और हसुवा आदि नगरों में एक साम्य है। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को प्रदर्शित करने वाले भित्ति चित्र महानदी के तटीय अथवा पास में स्थित ग्रामों में आज भी देखने को मिलते हैं।

इतिहास साक्षी है कि उड़ीसा का संबलपुर सन् १९०५ तक छत्तीसगढ़ के अंतर्गत था। अक्टूबर सन् १९०५ में सम्बलपुर बंगाल प्रान्त में स्थानान्तरित किया गया। आगे जब उड़ीसा प्रांत बना तब सम्बलपुर उसमें सम्मिलित किया गया। इसी समय चन्द्रपुर-पदमपुर और मालखरौदा स्टैट तथा नौ गौंटियाई खालसा गांव छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिलान्तर्गत जांजगीर तहसील में स्थानान्तरित किया गया। जब जिलों का पुनर्गठन किया गया तब सरसींवा खालसा और भटगांव, बिलाईगढ़-कटगी, लवन, सोनाखान जमींदारी को रायपुर जिला में स्थानान्तरित कर दिया गया।

छत्तीसगढ़ का नाम सुनते ही सोचा जाता है कि इस क्षेत्र में ३६ गढ़ या किले होंगे। वास्तव में ''गढ़'' शब्द का अर्थ होता है-प्रशासनिक भवन या किला। प्रसिद्ध संक्षेशभ के ताम्रपत्र के ''अष्टादश अटवी राज्य'' से ऐसा संकेत मिलता है कि अट्ठारह राज्यों के समूह की परम्परा छठी शताब्दी से चली आ रही है। रतनपुर और रायपुर के १८-१८ गढ़ों के संयुक्त रूप के फलस्वरूप छत्तीसगढ़ बना है। लाला प्रदुम्न सिंह लिखते हैं कि प्राचीन काल में छत्तीसगढ़ विभाग में छत्तीस राजा राज्य करते थे, इसमें ३६ राजधानियां थी। प्रत्येक राजधानी में एक-एक गढ़ था। ३६ गढ़ होने के कारण इस भूभाग का नाम छत्तीसगढ़ पड़ा (लाला प्रदुम्न सिंह, नागवंश, पृ० २)। चीजम साहब बहादुर ने ३६ गढ़ों की सूची दी है और हेविट साहब बहादुर ने तो अपनी सेटलमेंट रिपोर्ट में उन गढ़ों के नाम, ग्रामों की संख्या के साथ दिये हैं जो शिवनाथ नदी के उत्तर में रतनपुर राजधानी के अंतर्गत और दक्षिण में रायपुर राजधानी के अंतर्गत थे ( सी यू बिल्स : जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी पृ० १९९, २१० )। छत्तीसगढ़ शब्द की उत्पत्ति के विषय में एक संदेह और होता है कि कहीं इस शब्द का सम्बंध इस प्रान्त में रहने वाली छत्तीस कुरियों से तो नहीं ? रतनपुर निवासी श्री गोपालचंद्र मिश्र कृत खूबतमाशा और श्री रेवाराम कृत ''विक्रमविलास'' में मिलता है--''बसे छत्तीस कुरी सब दिन के बसवासी सब सबके''। कवि रेवाराम ने विक्रमविलास में लिखा है-

बसत नगर सीमा की खानी, चारी बरन निज धर्म निदान
और कुरी छत्तिस है तहां, रूप राशि गुन पूरन महां ।

छत्तीसगढ़ के नरेशों ने ''त्रिकलिंगाधिपति'' और ''त्रिपुरीश'' आदि संख्या विरूद्ध शब्दों को सदबहुमान धारण किया था और इनका संकेत उनके ताम्रशासनों में भी मिलता है। इस आधार पर पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ने यह तात्पर्य निकाला कि मध्ययुग में किसी राज्य की समर विजित शक्ति और महत्ता बतलाने के लिए उनका मान गढ़ों की संख्या से लगाया जाता था। जैसे बावनगढ़ मंडला, छत्तीसगढ़ रतनपुर आदि। उनका कथन है कि इस प्रान्त को ''छत्तीसगढ़-रतनपुर'' कहते थे। कालान्तर में रतनपुर शब्द का लोप हो गया और पूर्व विशेषण छत्तीसगढ़ राजा तथैव राज्य का अभिधान बन गया (हीरालाल : छत्तीसगढ़ी ग्रामर, प्रस्तावना पृ० ४)। संख्या-विरूद शब्दों का प्रयोग मध्यकाल में स्थान अथवा राज्य के महत्व को सूचित करने के लिए प्रचलित था। उदाहरणार्थ देखिये :-

दुर्ग अठारह अमित छवि सम्बलपुर परसिद्ध।
गढ़ सत्रह कोउ ना आए नमक छोड़ी अकबर के भये।।

इसके अतिरिक्त देवार जाति के गाये जाने वाले गोपल्ला गीत में ऐसे और भी अभिधान हमें देखने को मिलते हैं :- अनलेख गढ़ चांदा, अस्सीगढ़ दुर्ग-धमधा, बावनगढ़ गढ़ा, बावनगढ़ मंडला, अठारहगढ़ रतनपुर, अठारहगढ़ रइपुर, सोरागढ़ नागपुर, सोरागढ़ बलौदा, सातगढ़ संजारी, सातगढ़ कोरिया, बयालिसगांव भटगांव, बारागांव पौंसरा, बाइस डंड उड़ियान, सोरा डंड सिरगुजा। (प्रहलाद दुबे कृत जयचन्द्रिका, हस्तलिखित)।

छत्तीसगढ और उड़ीसा में रियासतें ब्रिटिश शासन, जागीर, पिं्रस पैलेट्री आदि का प्रशासनिक स्तर पर उल्लेख मिलता है। विभिन्न जाति, वर्ग और देशी रियासतें छत्तीसगढ़ में भी थी, जैसे सोमवंशी, हैहयवंशी, वैष्णवपंथी महंत आदि। हैहयवंशी राजाओं का राज्य जबलपुर से संबलपुर तक था। इनकी पहली राजधानी जबलपुर के पास त्रिपुरी में थी, लेकिन आसफअली के अनुसार सन् १७५६ में हुए युद्ध में यह वंश समाप्त हो गया। इसके पूर्व आठवीें शताब्दी में इस वंश की एक शाखा रतनपुर आ गयी थी। इसके पूर्व यहां सोमवंशी राजाओं का शासन था, तब इस क्षेत्र को ''दक्षिण कोसल'' कहा जाता था। सोमवंशी राजाओं की राजधानी उड़ीसा के सोनपुर में थी। छत्तीसगढ़ को परिभाषित करते हुए रतनपुर के कवि श्री गोपाल मिश्र ने सन् १६८९ में लिखा है :-

छत्तीसगढ़ गाढ़े जहां बड़े गढ़ोई जानि
सेवा स्वामिन को रहैं सकें ऐंड़ को मानि।

१५० वर्ष बाद रतनपुर के बाबू रेवाराम कायस्थ ने अपने ''विक्रम विलास'' में ''छ>शीसगढ़'' शब्द का प्रयोग किया है :-

तिनमें दक्षिण कोसल देसा, जहं हरि ओतु केसरी बेसा।
तासु मध्य छि>शास्गढ़ पावन, पुण्यभूमि सुर मुनि मन भावन।
रत्नपुरी तिनमें है नायक, कासी सम सब विधि सुख दायक।

छत्‍तीसगढ़की चौदह देशी रियासतें अंग्रेजी और भोंसला राजाओं से संधि के फलस्वरूप एक निश्चित राशि बतौर नजराने ब्रिटिश कम्पनी को देती थी। इन देशी रियासतों में बस्तर, कांकेर, सारंगढ़, रायगढ़, सक्ती, उदयपुर, जशपुर, सरगुजा, कोरिया, चांगभखार, खैरागढ़, छुईखदान, राजनांदगांव, कवर्धा, प्रमुख थे। इन देशी रियासतों में बंगाल के छोटा नागपुर क्षेत्र से पांच रियासत क्रमश: सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांगभखार को जहां छत्तीसगढ़ में मिलाया गया, वहां छत्तीसगढ़ की पांच रियासतें क्रमश: कालाहांडी, संबलपुर, पटना, बालांगीर और खरियार उड़ीसा में मिला दी गयीं।

इतिहास : ईसा पूर्व से

छत्तीसगढ़ के साहित्यकार और पुरातत्वविद् पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय ''श्री विष्णु यज्ञ स्मारक ग्रंथ'' में लिखते हैं :- ''प्राचीन साहित्य के द्वारा कोसल देश पर जो प्रकाश पड़ता है उसके अनुसार उसका इतिहास ७०० ईसा पूर्व का है। ''महावैयाकरण पाणिनी ने अपने व्याकरण में कलिंग और कोसल सम्बंधी सूत्र लिखे हैं। अनेक भाष्यकारों का मत है कि ''कोसल'' शब्द का प्रयोग यहां पर ''दक्षिण कोसल'' के लिए किया गया है। ईसा पूर्व ३०० की ब्राह्मी लिपि में लिखित दो ताम्र मुद्राएं लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में संग्रहीत हैं। इस पर कोसल चेदि की राजधानी ''त्रिपुरी'' नाम अंकित है। साथ ही स्वस्ति सहित सरित और शैल के तीन चिन्ह बने हैं, मानो यह तीन राज्य कोसल, मैकल और चेदि के द्योतक हैं।

व्हेनसांग की यात्रा

प्रयाग (इलाहाबाद) के किले में स्थित स्तम्भ में जो उत्कीर्ण लेख है उसमें कोसल का उल्लेख है। उसमें यह भी बताया गया है कि कोसल दक्षिणपथ के राज्यों में से एक है। प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेनसांग ने सन ६१९ में दक्षिण कोसल की यात्रा की थी। उसने इसकी सीमाओं के बारे में जो बातें लिखीं हैं वे यथार्थ के बहुत करीब जान पड़ती है उसके अनुसार दक्षिण का विस्तार लगभग दो हजार मील के वृत्त में था। इसके मध्य में रायपुर, दुर्ग, बिलासपुर, रायगढ़ और सम्बलपुर जिले का अधिेकांश भाग आता था। उत्तर में इसकी सीमा अमरकंटक को पार कर गई थी। अमरकंटक जो नर्मदा नदी का उद्गम स्थान है, मैकल पहाड़ की श्रेणियों के अंतर्गत आता है। रायपुर, रायगढ़ और सरगुजा जिलों की ईशान कोण में फैली हुई ये श्रेणियां उसकी सीमा बनाती है। पि चम भाग में इसकी सीमा दुर्ग और रायपुर जिलों के शेष भाग को समेटती हुई सिहावा तक चली जाती है और बैनगंगा को पार कर बराबर की सीमा को छूने लगती है। दक्षिण में इसका विस्तार बस्तर तक था, जबकि यह पूर्व में महानदी की उ>शरी घाटियों को समावेशित करती हुई सोनपुर तक चली गयी थी, जिससे पटना, बामड़ा, कालाहांडी आदि भी इसके अंतर्गत आ जाते थे जहां से सोमवंशी राजाओं की प्रशस्तियां प्राप्त हुई हैं। पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय के अनुसार दक्षिण कोसल की सीमा इस प्रकार थी-उत्तर में गंगा, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में उज्जैन और पूर्व में समुद्र के तट पर स्थित पाली (उड़ीसा)। उज्जैन को दक्षिण कोसल के पश्चिम में बताने वाला महाभारत के वन पर्व का श्लोक इस प्रकार है :-

गोसहस्र फलं विंद्यात् कुलंचैव समुद्धरेत्।
कोसलां तुसमासाद्य कालतीर्थमुप स्पृशेत्।। ( अध्याय ८४, वन पर्व )

जहां हीरे मिलते थे
श्री प्यारेलाल गुप्त द्वारा लिखित ''प्राचीन छ>शीसगढ़'' के अनुसार गिल्बन नामक एक अंग्रेज लेखक ने लिखा है कि संबलपुर के निकट हीराकूट नामक एक छोटा सा द्वीप है जहां हीरा मिलता है। इन हीरों की रोम में बड़ी खपत थी। उनके लेख से सिद्ध होता है कि कोसल का व्यापार रोम से था और रोम के सिक्के जो महानदी की रेत में पाये गये हैं, इसके प्रमाण हैं। व्हेनसांग ने भी लिखा है कि मध्यप्रदेश से हीरा लेकर लोग कलिंग में बेचा करते थे। यह महानदी के तट पर स्थित कोसल देशान्तर्गत संबक या संबलपुर छोड़ दूसरा नगर नहीं है ।

सांस्कृतिक परम्परा के द्योतक भित्ति चित्र

महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में घरों की दीवारों में छत्‍तीसगढ़और उड़ीसा की साक्षी लोक परम्परा के भित्ति चित्र मिलते हैं। सन १९८५ में महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर में सर्वप्रथम पत्रकार श्री सतीश जायसवाल ने लोक चित्रांकन की इस शैली की पहचान की। उन्होंने बताया कि इस भित्ति चित्र में श्रीकृष्ण चरित्र, जगन्नाथ चरित्र, और रामायण के प्रसंग प्रमुख रूप से होते हैं। इनमें गणेश, लक्ष्मी, राधाकृष्ण, राम लक्ष्मण जानकी और हनुमान, राम का वनगमन, स्वर्ण मृग, शेर, धनुर्धर शिकारी के अलावा मछली, मोर का जोड़ा आदि मिलता है। इनके रंग संयोजन भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के रंगों से मिलते हैं, इनका रंग हल्का होता है क्योंकि इसमें प्रयुक्त होने वाले नैसर्गिक रंग वृक्षों की छाल, वनस्पति,कोयला और पत्थर के चूर्ण आदि से तैयार किये जाते हैं। इन भित्ति चित्रों को बनाने वाले लोक कलाकार निषाद-केंवट, धीवर, मछुवारे अथवा शबर जाति के भाट होते हैं। इन्हें बिरतिया भी कहा जाता है।

मैंने इन भित्ति चित्रों को अपने पैत्रिक गांव हसुवा में देखा। हसुवा ग्राम पहले जगन्नाथ मंदिर पुरी में चढ़ा ग्राम था जिसे हमारे पूर्वज श्री धीरसाय साव ने अपने पुत्रों मयाराम, मनसाराम और सरधाराम के नाम से खरीदा था। यहां इन भित्ति चित्रों को देखकर मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने यहां के सरपंच श्री गोरेलाल केशरवानी से इसकी जानकारी चाही। उन्होंने मुझे बताया कि इन भिि>श चित्रों को बनाने वाले भाट उड़ीसा प्रांत से आते हैं। ये लोग प्रतिवर्ष कार्तिक और जेठ मास के बीच आते हैं, घरों की दीवारों में चित्र बनाते हैं और उड़िया में कोई गीत गाते हैं। बदले में चावल लेते हैं। आजकल पैसे भी लेते हैं। ये चित्र साल भर दीवारों में बने होते हैं। इन लोक चित्रकार में निषाद यजमान मुख्य रूप से महानदी के तटवर्ती ग्राम्यांचलों में रहते हैं। इसलिए भिि>श चित्रांकन की यह लोक परम्परा महानदी के तटवर्ती ग्रामों में अधिक दिखती है। लेकिन मध्य उड़ीसा के कृषि प्रधान गांवों में यह लोक चित्रांकन की परम्परा अनुष्ठानिक हो जाती है। यहां की गृहस्थ और अविवाहित युवतियां दशहरा के दिन से अपने अपने घरों में भिि>श चित्र बनाती हैं। भिि>श चित्रांकन की यह परम्परा कृषि आधारित समृद्धि ग्रामीण समाज में एक शुद्ध लोककला के रूप में पोषित हुई दिखती है। महानदी से सिंचित कृषि ग्रामों में इनके भिि>श चित्रों की बहुलता होती है। लेकिन जैसे जैसे महानदी के तट से दूर होते हैं या सूखाग्रस्त इलाके की ओर बढ़ते हैं, ये भिि>श चित्र कम होने लगते हैं। इसी प्रकार सड़क के भीतर की ओर बसे हुए गांवों में तो ये भिि>श चित्र खूब देखने को मिलते हैं, लेकिन जैसे जैसे सड़क की ओर आते हैं ये कम होते जाते हैं। भिि>श चित्रांकन की महानदी घाटी की यह लोक परम्परा कितनी पुरानी है तथा इसके विकास का क्रम क्या रहा है, इसकी प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती।

साझी संस्कृति का अद्भुत समन्वय

महानदी के तटवर्ती ग्रामों में हिन्दी, छ>शीसगढ़ी और उड़िया भाषा का अद्भूत समन्वय देखने को मिलता है। एक सर्वेक्षण दल ने महानदी के किनारे बसे पूर्वी छत्‍तीसगढ़और पश्चिम उड़ीसा दक्षिण में भटली से लेकर उ>शर में ओंगना तक लगभग २०० कि. मी. तक का सर्वेक्षण दल ने दौरा किया। इस दल में डॉ. ब्रजभूषणसिंह 'आदर्श', सतीश जायसवाल, सरजू मिश्रा, प्रो. भूपेन्द्र पटेल, बनवारीलाल देवांगन, रवीन्द्र कंचन और सुश्री शैलजा ठाकुर आदि थे।

सर्वेक्षण दल के सदस्य प्रो. भूपेन्द्र पटेल के अनुसार वनों और पहाड़ों के बीच बसा एक छोटा सा गांव ओंगना प्रागैतिहासिक शैलचित्रों के कारण आज पुरावे>शाओं की दुनिया में महत्व और ख्याति पा गया है। पहाड़ी चट्टानों पर गैरिक रेखाओं से बने इन शैलचित्रों को देखने के लिए देशी और विदेशी पर्यटक यहां आते हैं। पर इनमें से बहुत कम लोग शैलचित्रों और अर्थो को समझतें हैं। पर्यटकों को कोई बताता भी नहीं कि इस ओंगना ग्राम में समसामयिक जन जीवन भी विद्यमान है, इनकी लोक परम्पराएं जीवित है। यहां उड़िया मूल के ''कोलता'' कृषक रहते हैं। इन कोलता कृषकों को मध्यप्रदेश और छत्‍तीसगढ़में सामाजिक ओैर शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग में शामिल कर लिया गया है।

उड़ीसा राज्य के गठन के पूर्व उदयपुर की आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रांत बरार के अंतर्गत संबलपुर थी। धरमजयगढ़ उसका मुख्यालय था। उड़ीसा राज्य के बनते ही संबलपुर तो मध्य प्रांत-बरार से अलग होकर इस नये प्रांत में सम्मिलित हो गया। लेकिन यह आदिवासी रियासत तत्कालीन मध्य प्रदेश में सम्मिलित कर ली गयी। इसके साथ ही ओंगना ग्राम भी तत्कालीन मध्य प्रदेश और वर्तमान छत्‍तीसगढ़में आ गया।

कीर्तन और साड़ी

ओंगना में बसे उड़िया मूल के कोलता कृषक संबलपुरी रेशमी साड़ी बुनने के उन्नत पारंपरिक हस्तकौशल में निष्णात होने के साथ साथ उड़िया कीर्तन रामायण की कला परंपरा से सम्पन्न हैं। संबलपुरी साड़ी को बुनने में बहुत खर्च आता है। उसको बिक्री के लिए संबलपुर तक ले जाना श्रमसाध्य और कठिन है। अत: धीरे धीरे यह उन्नत कौशल लुप्त होता जा रहा है। लेकिन कीर्तन और रामायण कला परंपरा के अवशेष जरूर बचे हैं। इन्हें बचाने की आवश्यकता है।

राजा नरेशचंद्र स्मृति संस्थान

छत्‍तीसगढ़की पूर्वी सीमा पर उड़ीसा से लगा एक प्रमुख गढ़ तथा वर्तमान में रायगढ़ जिले का एक प्रमुख तहसील मुख्यालय सारंगढ़ है। यहां छ>शीसगढ़ी और उड़िया संस्कृति का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। चाहे रथ यात्रा पर्व हो या दशहरा, दोनों की साझी सांस्कृतिक परम्परा का समन्वय पर्व होता है और इन्हें जोड़ने का कार्य राजा नरेशचंद्र सिंह स्मृति संस्थान सारंगढ़ कर रहा है। राज परिवार के युवा चिकित्सक दम्पति मेनका-परिवेश मिश्र इस संस्थान के माध्यम से इस अंचल की मिश्रित साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को समेटने-सहेजने और प्रोत्साहित करने में संलग्न हैं।

पिछले वर्ष चंद्रपुर जमींदारी के अंतर्गत महानदी के तट पर बसे ग्राम बालपुर में छायावाद के प्रवर्तक पंडित मुकुटधर पांडेय की जयंती पर एक त्रिदिवसीय लोक शिविर का आयोजन किया गया। इस लोक शिविर में एक मत से छ>शीसगढ़ी और उड़िया भाषी सांस्कृतिक परंपरा को सहेजने-समेटने तथा सांस्कृतिक पुनर्सीमांकन की बात कही। इसके लिए महानदी को माध्यम बनाया जा सकता है। कहना न होगा कि बालपुर का पाण्डेय परिवार साहित्यिक गतिविधियों से पूरी तरह से जुड़ा हुआ है। पुरातत्वविद् और सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय कई भाषाओं के साथ उड़िया भाषा के भी ज्ञाता थे। उन्होंने इन भाषाओं में कई पुस्तकें लिखी हैं। अत: बालपुर को भी उड़िया भाषी और हिन्दी भाषी लोगों का संधि स्थल कहा जा सकता है क्यों कि उनके काव्यों में उड़िया और छ>शीसगढ़ी संस्कृति का स्पष्ट प्रभाव देखने को मिलता हैं पूर्वी छत्‍तीसगढ़और पश्चिमी उड़ीसा के बीच सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं में व्याप्त एकरूपता इनका प्रमुख आधार है। पंडित मुकुटधर पांण्डेय ने भी लिखा है :-

किंशुक कानन आवेष्ठित वह महानदी तट-देश।
सरस इक्षु के दंड, धान की नवमंजरी विशेष।।

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