Friday, November 30, 2007

भूमिका

पंडित विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं :- ''नदी हमारे जीवन का प्रवाह है। वह एक साथ निरन्तरता, अखंडता, अनन्त से एकाकारता के दुर्निवार संकल्प, आगे आने वाली की चिंता और अविराम गति में जीवन के साथ एकाकार है। नदी का पथ सीधा नहीं होता। कभी कभी नदी भी मुड़कर पीछे देखती है। अपने पिछले मोड़ को देखने से आगे के लिए भाक्ति मिलती है। जीवन भी पीछे देखता है-पीछे लौटने के लिए नहीं बल्कि और अधिक दृढ़ता के साथ आगे बढ़ने के लिए। नदी अपने किनारे बराबर तोड़ती है, जल्दी कोई किनारा स्वीकार ही नहीं करती। जीवन भी कोई कूल नहीं सहता, वह नये कूल स्वीकार करते चलता है। वह नई मर्यादाएं स्थापित करते चलता है। वह केवल अपने वेग से संचालित होता है। आगे बढ़ने में, लक्ष्य तक पहुंचने में जो दि शा अनुकूल जान पड़ती है, उसी का वरण करता है। कुलक शा नदी तोड़ती है तो जोड़ना भी जानती है, जुड़ना भी जानती है, जो उमंग से उसमें मिलना चाहता है उसे अंगीकार करती है। जीवन भी कितने रि ते जोड़ता है, कितनों से जुड़ता है, पर सबको जोड़कर एक ही लक्ष्य तक पहुंचना और पहंुचाना चाहता है। नदी निम्नगा होती है। जीवन में नीचे की ओर जाने का बड़ा प्रलोभन होता है, पर साथ ही, जैसे नदी में बाढ़ आती है तो नदी अपने को उलीचकर धरती को उर्वर बना देती है। बाढ़ के बाद नदी उतरती है तो निर्मल हो जाती है। जीवन भी लुटाकर पवित्र हो जाता है। हमारी विश्वदृष्टि जीवन और नदी के तादात्म्य से ऐसी जुड़ी हुई है कि हमने जल को 'नार' नाम दे दिया है। नार का अर्थ है 'नरमय' उसी नार में वास करने के कारण भगवान 'नारायण' कहे गये हैं हमारे हर संकल्प में नदी है। नदी में अस्थि प्रवाह का अर्थ भी स्थूल जीवन के अव ोश को पूर्ण जीवन में रूपांतरित करना है। नदियों को हमने विराट पुरूश की नाड़ी प्रणाली के रूप में देखा है। नदी के द्वारा ही दे श की संवेदना की परख होती है। आज जब दे श की संवेदना से बहुत कुछ विजड़ित होता जा रहा है, तभी नदी केवल भाक्ति का साधन मात्र बनती जा रही है। उसके साथ जुड़ी हुई अनन्तता, अजस्र प्रवाहिता और सुचिता का बोध लुप्त होता जा रहा है। उसी का परिणाम है कि हम अ शुचिता नदी में पाटते जा रहे हैं। नदी को हम अपना जीवन मानते तो ऐसा कदापि न करते।

पंडित विद्यानिवास मिश्र जी के विचार से भला मैं असहमत कैसे हो सकता हूं। हिन्दुस्तान में गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम प्रयागराज इलाहाबाद में हुआ है। ऐसा वि वास किया जाता है कि यहां अस्थि प्रवाहित करने और पिंडदान करने से 'मोक्ष' मिलता है। ऐसा दूसरा कोई तीर्थ नहीं है, ऐसा भी माना जाता है। लेकिन मोक्षदायी सहोदर के रूप में छत्‍तीसगढ़के शिवरीनारायण और राजिम को माना जा सकता है। दोनों सांस्कृतिक तीर्थ चित्रोत्पला गंगा के तट पर क्रम श: महानदी, शिवनाथ और जोंकनदी तथा महानदी, सोढुल और पैरी नदी के साथ त्रिधारा संगम बनाते हैं। यहां भी अस्थि विसर्जन किया जाता है, और ऐसा वि वास किया जाता है कि यहां पिंडदान करने से मोक्ष मिलता है। शिवरीनारायण में तो माखन साव घाट और रामघाट में अस्थि कुंड है जिसमें अस्थि प्रवाहित किया जाता है। श्री बटुकसिंह चौहान ने 'श्री शिवरीनारायण सुन्दरगिरि महात्म्य' के आठवें अध्याय में अस्थि विसर्जन की महत्‍ता का बहुत सुंदर वर्णन किया है :-

दोहा
शिव गंगा के संगम में, कीन्ह अस पर वाह।
पिण्ड दान वहां जो करे, तरो-बैकुण्ठ जाय।।
चौपाई
वहां स्नान कर यह फल होई। विद्या वान गुणी नर सोई।।
एक सौ पितरन वहां पर तारे। पितरन पिण्ड तहां नर पारै।।
गया समान ताही फल जानो। पितरन पिण्ड तहां तुम मानो।।
मानो पितर गया करि आवे। पितरन भूरि सबै फल पाये।।
जो कोई जायके पिण्ड ढरकावहीं। ताकर पितर बैकुण्ठ सिधावहीं।।

दोहा
क्वांर कृश्णो सुदि नौमि के, होत तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले, निर्धन को धनवान।।
महानदी गंग के संगम में, जो किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं बुटु सिंह चौहान।।

पंडित मालिकराम भोगहा श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में लिखते हैं :-

आठों गण सुर मुनि सदा आश्रय करत सधीर।
जानि नारायण क्षेत्र शुभ चित्रोत्पल नदि तीर।।
देश कलिंगहि आइके धर्म रूप थिर पाई।
दरसन परसन वास अरू सुमिरन ते दुख जाई।। १/४०-४१

अर्थात् आठों गण, देवता और मुनि धीरयुत हो नारायण क्षेत्र के चित्रोत्पला नदी के तट पर निरंतर वास किया करते हैं। कलिंग दे श का यह फाटक होने से यह धर्ममय पावन भूमि है। इहां को स्थिरता पाकर निवास करे वा दरसन परसन करे तो उसका दुख का अवश्‍य नाश हो जाता है।
ऐसा पवित्र, पुण्य और मोक्षदायी श्री नारायण क्षेत्र छत्‍तीसगढ़ में पुण्यदायी नदी चित्रोत्पला गंगा (महानदी) के तट पर स्थित है। स्कंद पुराण में इसे 'श्री पुरूशोत्‍तम क्षेत्र' भी कहा गया है। आज भी यहां चतुर्भुजी विश्णु के अन्यान्य रूप जैसे भाबरीनारायण, के शिवनारायण और लक्ष्मीनारायण की भव्य, आकर्शक और द र्शनीय मूर्तियों के अलावा वैश्णव मठ, श्रीरामजानकीमंदिर, श्रीराधाकृश्ण मंदिर और जगन्नाथ मंदिर हैं।
प्राचीन काल से शिवरीनारायण को श्री नारायण क्षेत्र माना जाता है। युगानुयुग से इस क्षेत्र की महिमा पुण्यदायी है। श्री शिवरीनारायण माहात्म्य में इसका वर्णन है :-

भगवद्धाम जानीहि नारायण कलाश्रितम्
आदौ विश्णु पुरी नाम ततो रामपुरं सप्तम्
बैकुंठपुर नामा सी ततो नारायण पुरम्
चित्रोत्पला नदी तीरे पुण्य कानन मंडिते
सिंदूर पर्वताभ्यासे तत्र नारायणे व्यय:
रोहिणी कुंड मासाद्य भक्तया भीश्ट फल प्रद:।। २/९-१०-११

अर्थात् इस पुण्य भगवद्धाम को नारायण के कलाश्रित जानिये। पहिले इसका नाम वि नुपुरी, रामपुर, नारायणपुर और भाबरीनारायण के नाम से प्रख्यात् है। चित्रोत्पला नदी के किनारे सुंदर अमराई से अच्छादित सिंदूरगिरि सु शोभित है, तहां अव्यय श्रीनारायण विराजमान हैं। उनके चरण के नीचे 'रोहिणी कुंड' जो भक्तों को अभीश्ट फल देने वाला है।
प्राचीन कवि श्री बटुकसिंह चौहान ने रोहिणी कुंड की महिमा गायी है :-

रोहिणी कुंड एक धाम है, है अमृत का नीर।
बंदरी से रानी भई, कंचन होत भारीर।।
जो कोई नर जाइके, दरस करे वही धाम।
बुटु सिंह जो दरस करि, पाये पद निर्वाण।।

श्री नारायण क्षेत्र में पुण्यदायी चित्रोत्पला गंगा का अवतरण, उसके तट पर भगवान नारायण का गुप्त वास और उसके चरण कमल को धो रही रोहिणी कुंड का दर्शन, स्पर्श और आचमन मोक्षदायी है। इस कुंड की महिमा अनुपम है। इस कुंड के जल को स्प र्श करने और आचमन करने से मोक्ष मिलता है। इसी अध्याय के १३६-१३७ वें भलोक के अनुवाद में भोगहा जी ने लिखा है :-

रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि न्हाइ उत्पला नीर
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत धोइ शरीर।।
उत्पलेश आरंभ हो चित्रेश्वरी प्रयंत
चित्रोत्पला सुजानिये नासै पाप अनंत।।२/१३६-१३७।।

अर्थात् रोहिणी कुंड के जल को जो कोई स्पर्श कर चित्रोत्पला नदी के जल में स्नान करेगा, योग भ्रश्ट योगी भी मुक्ति पावेंगे। अब यह बताते हैं कि चित्रोत्पला गंगा कहां से कहां तक माननी चाहिये। उत्पलेश महादेव राजीव लोचन में महानदी और पैरी के संगम में है जो अब कुलेश्वर नाम से प्रख्यात् है, वहां से चित्रा महेश्वरी अर्थात् चंद्रसेनी चंद्रपुर तक मानना चाहिये। जो अनंत पाप का ना श करने वाली है।
रोहिणी कुंड की महिमा अनंत है। कहा भी गया है :-

रोहिणी कुण्ड मासाद्य स्थित: सेव्य: सदा सुरै:
तस्य दर्शनं मात्रेण मुच्यते पातकैर्नरा:। २/१४४।
अनुवाद
रोहणि कुंडहि आइ करि सेवत सुर गण नित
तासु दरस ही मात्र से नासत पाप अमित।।
भावार्थ
...और रोहिणी कुंड में देवतागण आकर चरणामृत सदा सेवन किया करते हैं। तुम्हारे हमारे अनंत पाप उसके दर्शन ही से क्यों न छूट जावेगा, इसलिये हम सबको चाहिये कि जब तक जियें, रोहिणी कुंड के द र्शन करें, उसके जल का चरणामृत ग्रहण करें और चित्रोत्पला नदी में नित्य स्नान किया करें।

शिवरीनारायण की जगन्नाथ पुरी से बहुत समानता है। पहली बात तो जगन्नाथ पुरी के भगवान जगन्नाथ की विग्रह मूर्ति को शिवरीनारायण से ही ले जाया गया है और जिस प्रकार पुरी का जगन्नाथ मंदिर तांत्रिकों के बब्जे में था और आदि गुरू भांकराचार्य ने उनसे भाशस्त्रार्थ करके उसके प्रभाव से मंदिर को मुक्त कराया था उसी प्रकार शिवरीनारायण का मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के कब्जे में था और आदि गुरू दयाराम दास ने उनसे मंदिर को मुक्त कराकर यहां वैश्णव मठ की स्थापना की थी। जिस प्रकार पुरी क्षेत्र में कुश्ठ रोगियों की अधिकता है उसी प्रकार शिवरीनारायण क्षेत्र में भी कुश्ठ रोगियों की अधिकता है। शिवरीनारायण का कुश्ठ अस्पताल हांलाकि आज ध्वस्त हो गया है और यहां एक भी कुश्ठ रोगी नहीं है लेकिन यहां डॉ. एम. एम. गौर कुश्ठ विषेशज्ञ थे और उन्हीं की पहल, श्री देवालाल के शरवानी और श्री बल्दाऊ प्रसाद के शरवानी के सहयोग से यहां एक चिकित्सालय की स्थापना हो सकी जिसका उद्घाटन मध्यप्रदे शासन के तत्कालीन स्वास्थ्य एवं सहकारिता मंत्री श्री चित्रकांत जायसवाल ने ०९.१०.१९६९ को किया था। पुरी और शिवरीनारायण में रोहिणी कुंड है और दोनों जगह रथयात्रा बड़ी धूमधाम से मनायी जाती है। रीवा के महाराजा को कुष्‍ठ रोग से मुक्ति शिवरीनारायण के भगवान भाबरीनारायण के द र्शन और पूजन से हुई थी। कदाचित यही कारण है कि रींवा क्षेत्र के तीर्थ यात्री जगन्नाथ पुरी जाने के पहले शिवरीनारायण की यात्रा करते हैं और शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी कहा जाता है।

तत्कालीन साहित्य के अध्ययन से मैं इस निश्कर्श में पहुंचा हूं कि इंद्रभूति नाम का व्यक्ति जिस नीलमाधव की मूर्ति को संबलपुर की पहाड़ी में रखकर तांत्रिक सिद्धि किया करता था उसे वह शिवरीनारायण से उठाकर ले गया था और उसकी तीसरी पीढ़ी के लोग पुरी में स्थापित कर तांत्रिक सिद्धियां करने लगे। इंद्रभूति बौद्ध धर्म के वज्रयान भाखा के प्रवर्तक थे। वे पद्मवज्र के शिश्य अनंगवज्र के शिश्य थे। उन्होंने तंत्र मंत्र की अनेक सिद्धियां प्राप्त करके कई ग्रंथ लिखा जिसमें 'ज्ञानसिद्धि' सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। कविराज गोपीनाथ महापात्र ने इंद्रभूति को 'उड्डयन सिद्ध अवधूत' कहा है। इनके पुत्र पद्मसंभव ने तिब्बत जाकर लामा सम्प्रदाय की स्थापना की थी। आसाम के कालिका पुराण के अनुसार तंत्र विद्या का उदय उड़ीसा में हुआ और भगवान जगन्नाथ उनके इश्टदेव थे।

प्रस्तुत ग्रंथ- ''शिवरीनारायण : देवालय और परंपराएं'' इन्हीं सब भावों को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में दो खंड है। पहले खंड में यहां के मंदिरों के उपर सात आलेख क्रम श: गुप्तधाम, भाबरीनारायण और सहयोगी देवालय, अन्नपूर्णा मंदिर, महे वरनाथ मंदिर, भाबरी मंदिर, जनकपुर के हनुमान और खरौद के लखने वर मंदिर। इन आलेखों के माध्यम से मैंने यहां के सभी मंदिरों के निर्माण से लेकर उसकी महत्ता तक विस्तृत वर्णन करने का प्रयास किया है। प्रमुख मंदिर भगवान भाबरीनारायण का है भोश सहायक मंदिर हैं जिसके निर्माण के बारे में अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। बदरीनारायण में जहां भगवान नर नारायण की तपस्थली है वही शिवरीनारायण में भगवान नर नारायण भाबरीनारायण के रूप में गुप्त रूप से विराजमान हैं। कदाचित् इसीकारण सतयुग में यहां मतंग ऋशि का गुरूकुल आश्रम था। भारतेन्दु कालीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा ने जो 'भाबरीनारायण माहात्म्य' लिखी है उसका शीर्शक उन्होंने 'श्री शबदरीनारायण माहात्म्य' दिया है। उन्होंने ऐसा भाशयद स्कंद पुराण में इस क्षेत्र को 'श्रीनारायण क्षेत्र' के रूप में उल्लेख किये जाने के कारण किया है। यहां रामायण कालीन भाबरी उद्धार और लंका विजय के निमित्त भ्राता लक्ष्मण की विनती पर श्रीराम ने खर और दूशण की मुक्ति के प चात् 'लक्ष्मणे वर महादेव' की स्थापना की थी। इसीप्रकार औघड़दानी शिवजी की महिमा आज महे वरनाथ के रूप में माखन वं श और कटगी-बिलाईगढ़ जमींदार की वं शबेल को बढ़ाकर उनके कुलदेव के रूप में पूजित हो रहे हैं। मां अन्नपूर्णा की ही कृपा से समूचा छत्तीसगढ़ 'धान का कटोरा' कहलाने का गौरव प्राप्त कर सका है। इस खंड के सभी देवालय लोगों की श्रद्धा और भक्ति का प्रमाण है। तभी तो पंडित हीराराम त्रिपाठी गाते अघाते नहीं हैं :-
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहां जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं।। १ ।।

ग्रंथ के दूसरे खंड में यहां प्रचलित परंपराओं को द र्शाने वाले १७ आलेख है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदी की तरह चित्रोत्पलागंगा (महानदी) को भी मोक्षदायी माना गया है। 'मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा' में इन्हीं सब तथ्यों का वर्णन है। इस नदी में अस्थि विसर्जन, बनारस के समान महानदी के घाट, भगवान भाबरीनारायण के चरण को स्प र्श करती मोक्षदायी रोहिणी कुंड, वैश्णव मठ और महंत परंपरा, महंतों के द्वारा गादी चौरा पूजा, जगन्नाथ पुरी के समान प्रचलित रथयात्रा, तांत्रिक परंपरा, नाट्य परंपरा, साहित्यिक परंपरा, प्रसिद्ध मेला के साथ शिवरीनारायण के भोगहा, गुरू घासी बाबा, रमरमिहा और माखन वं शानुक्रम, शिवरीनारायण की कहानी उसी की जुबानी और महानदी के हीरे आलेख यहां की परंपराओं को रेखांकित करता है।

जिस तरह यहां का प्रसिद्ध भाबरीनारायण मंदिर अति प्राचीन है उसी प्रकार मंदिर के भोगराग लगाने वाले 'भोगहा'' का वं श भी प्राचीन है। उपलब्ध तथ्यों के अनुसार ५८ पुस्‍तों से भोगहा परिवार के वं शज भाबरीनारायण मंदिर में भोगराग लगाते आ रहे हैं। भोगहा परिवार आधा शिवरीनारायण के मालगुजार थे कदाचित् भोगहापारा नाम उनकी मालगुजारी का प्रतीक है। इसी प्रकार यहां का मठ अति प्राचीन है। पहले यह मठ नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे आदिगुरू दयारामदास ने उनसे मुक्त कराया और यहां वैश्णव मठ की स्थापना की। वे इस मठ के प्रथम महंत हुए। तब से लेकर आज तक १४ महंत हो चुके हैं और १५ वें महंत राजेश्री रामसुंदरदास जी हैं। महंतों ने तांत्रिकों के प्रभाव को समाप्त करने के लिए 'गादी चौरा पूजा'' शुरू की थी जो आज भी प्रचलित है। शिवरीनारायण की आधी भूमि महंतों की जागीर थी। दोनों को मिलाकर पहले ग्राम पंचायत बनाया गया जो आज नगर पंचायत है। तीसरा महत्वपूर्ण वंश यहां का 'माखन वंश' है जो आज बटवृक्ष की भांति फैल गया है। इस वं श के पितृ पुरूश श्री धीरसाव और उनके पुत्र मयाराम, मनसाराम तथा सरधाराम के परिवार को भागीरथ भोगहा ने सन् १८०० में यहां बसाया था। इस परिवार के कुलोद्धारक माखन साव हुए। वे इस वंश के ज्येश्ठ होने के कारण 'लंबरदार' बने। उन्होंने अपने प्रथम मालगुजारी गांव हसुवा के बाद छह गांव क्रमश: टाटा, सीतलपुर, बछौडीह, झुमका, लखुर्री और कमरीद म. नं. १ को खरीदकर सात गांव के मालगुजार रहे हैं। वे धीर, गंभीर, धर्मप्रिय और न्यायप्रिय थे। सन् १८६१ में शिवरीनारायण को बिलासपुर जिले का तहसील बनाया गया। तब यहां के अनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट के रूप में पंडित यदुनाथ भोगहा, महंत अर्जुनदास और माखन साव की नियुक्ति की गयी। उन्हें हथियार रखने का माफी लाइसेंस मिला था। वे दोनों धाम की पदयात्रा कर सकु शल लौट आये थे। उन्होंने महानदी के तट पर अपने कुलदेव महे वरनाथ और कुलदेवी शीतला माता का एक भव्य मंदिर और एक घाट का निर्माण संवत् १८९० में कराया था। सुप्रसिद्ध साहित्यकार और शिवरीनारायण के तहसीलदार ठाकुर जगमोहनसिंह ने सन् १८८४ में यहां के आठ सज्जन व्यक्तियों का परिचय 'सज्जनाष्‍टक'' में लिखकर प्रकाशित कराया है। माखन साव भी अष्‍टक में से एक हैं। उनके बारे में उन्होंने लिखा है :-

माखन साहु राहु दारिद कहं अहै महाजन भारी।
दीन्हो घर माखन अरू रोटी बहुविधि तिनहो मुरारी।।
लच्छपती मुइ भारन जनन को टारत सकल कले शा।
द्रव्यहीन कहं है कुबेर सम रहत न दुख को ले शा।
दुओधाम प्रथमहि करि निज पग कांवर आप चढ़ाई।
चार बीस भारदहु के बीते रीते गोलक नैना।
लखि अंसार संसार पार कहं मुंदे दृग तजि नैना।।

'चार बीस भारदहु के बीते' अर्थात् ८० वर्श तक जीवन का सुख भोगकर फाल्गुन सुदी २, संवत् १९४९ ( शनिवार, ०६ मार्च सन् १८९२) को स्वर्गारोहण किया। उनके ज्येश्ठ पुत्र श्री खेदूराम साव ने परिवार की लंबरदारी सम्हाली। उन्हें भी शिवरीनारायण तहसील के आनरेरी बेंच मजिस्ट्रेट और दरबारी नियुक्त कर हथियार रखने का माफी लाइसेंस मिला। श्री खेदूराम साव की मृत्यु कार्तिक शुक्ल १३, संवत् १९६९ (२२.११.१९१२) को हुई तब उनके ज्येश्ठ पुत्र श्री आत्माराम साव परिवार के लंबरदार बने। सन् १८९१ में तहसील मुख्यालय शिवरीनारायण से जांजगीर स्थानान्तरित हो गया। ३१. ०५. १९२० को श्री आत्माराम साव को जांजगीर तहसील के शिवरीनारायण बेंच के आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया था। 'श्री आत्माराम सूरजदीन साव' नाम से लंबरदारी चली। इस लंबरदारी में ०७ गांवों की मालगुजारी बढ़कर ८४ गांव हो गयी। उन्होंने अनेक तीर्थे में धर्म शाला बनवायी, अपने सभी मालगुजारी गांवों में तालाब और कुंआ खुदवाया, स्कूल खुलवाया और तीर्थ यात्राएं की। महानदी के तट पर माखन साव के द्वारा निर्मित घाट में पचरी निर्माण कराया। इसके लिए उन्होंने अंग्रेज सरकार से अनुमति भी ली थी। ऐसे माखन वं श का मैं बहुत छोटा पौध होकर गौरवान्वित हूं।

इस ग्रंथ के दूसरे परंपरा खंड में मैंने गुरू घासी बाबा और रमरमिहा को इसलिए सम्मिलित किया है क्योंकि शिवरीनारायण उनका सांस्कृतिक तीर्थ है। सुपसिद्ध साहित्यकार ठाकुर जगमोहनसिंह यहां के सन् १८८२ से १८८७ तक तहसीलदार रहे। वे भारतेन्दु हरि चंद्र के सहपाठी और मित्र थे। उन्होंने काशी के 'भारतेन्दु मंडल' की तर्ज में यहां 'जगन्मोहन मंडल' की स्थापना कर छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को एक सूत्र में बांधा ही नहीं बल्कि उन्हें लेखन की दि शा भी दी थी। भारतेन्दु हरि चंद्र का आगमन शिवरीनारायण की पवित्र भूमि पर हुआ था। कदाचित् इसी कारण मैंने शिवरीनारायण को 'साहित्यिक तीर्थ' की संज्ञा दी है। 'नाट्य परंपरा' यहां प्रचलित थी। पंडित मालिकराम भोगहा ने यहां एक नाटक मंडली बनायी थी। आगे चलकर यहां और नाटक मंडली बनी और नाटकों का सफलता पूर्वक मंचन भी किया गया।
इस ग्रंथ के लेखन में भगवान भाबरीनारायण, हमारे कुलदेव महे वर महादेव और कुलदेवी शीतला माता का आ शीर्वाद और चित्रोत्पला गंगा का संस्कार प्रमुख है। मैं उन्हें हृदय से नमन करता हूं। भारतेन्दु युगीन साहित्यकार श्री गोविंदसाव जिनका मैं बहुत छोटा वं शज हूं ,जानकर मैं गौरवान्वित हूं। उन्हें मैं प्रणाम करता हूं। मेरे दादा स्व. श्री राघवप्रसाद जिन्होंने मुझे रामायण और महाभारत के प्रसंगों को सुनाकर जागृत किया, मेरे माता-पिता श्रीमती मिथले श-देवालाल का दुलार और मेरी अर्द्धांगनी कल्याणी का सहयोग स्मरणीय है। उनका आभार मानना उनके सहयोग को झुठलाना होगा। सुपुत्र प्रांजल ने तो कम्प्यूटर में कम्पोजिंग सेटिंग कर इसे पुस्तक रूप प्रदान किया है। बिटिया तृप्ति और बेटा अंजल का अप्रत्यक्ष सहयोग भूलने योग्य नहीं है। उन्हें मेरा असीम प्यार।

मेरे अभिन्न मित्र डॉ. आि वनी कुमार दुबे, स्व. श्री मदनलाल गुप्त, श्री पूर्णेन्द्र तिवारी के प्रेरणादायी सहयोग के लिए उनका मैं आभारी हूं। शिवरीनारायण-दूधाधारी मठ के महंत राजेश्री रामसुन्दरदास जी का वि ोश स्नेह, सहयोग और प्रोत्साहन मुझे मिला है जिसके लिए उनका आभार प्रकट करना मेरा नैतिक दायित्व है। भाई श्री राहुल कुमार सिंह ने न केवल शिलालेखों का अनुवाद उपलब्ध कराया बल्कि उसकी बारीकियों को समझने में मद्द की, यह उनका बड़प्पन है। मैं उनका ऋणी हूं। श्री महे श कुमार राठौर ने मेरी रचनाओं को धीरज के साथ पढ़कर आव यक सं शोधन कर सुरूचिपूर्ण बनाया है। जीवन के संघर्शपूर्ण मोड़ में मुझे डॉ. व्ही. एस. श्रीवास्तव और डॉ. एम. एल. सोनार जी का स्नेह पूर्वक पथ प्रद र्शन और सहयोग मिला। मैं उनके प्रति आभार प्रदि र्शत करना अपना दायित्व समझता हूं। सुप्रसिद्ध साहित्यकार, भारतीय संस्कृति के प्रकाण्ड विद्वान और सांसद (राज्य सभा) पं. विद्यानिवास जी मिश्र के पास आ शीर्वचन लिखने के लिए मैंने इस ग्रंथ की पांडुलिपि भेजी थी। उन्होंने जहां एक ओर इस ग्रंथ को 'परिवे श का एक वि वकोश' माना है वहां दूसरी ओर इसे एकान्विति (सूत्रबद्धता) प्रदान करने का सुझाव दिया है। तद्नुसार मैंने इस ग्रंथ में आव यक सं शोधन और एकान्विति कर सुव्यवस्थित करने का पूर्ण प्रयास किया है। मुझे पूरा वि वास है कि इस परिमार्जन के प चात् इस ग्रंथ के पाठकों, अध्येताओं को इसके पठन में किसी प्रकार के क्रमदोश की प्रतीति नहीं होगी। मेरा मानना है कि ग्रंथ के दोनों खंड अपने आप में पूर्ण तथा अपनी निजी महत्ता सिद्ध करने के साथ साथ अपने आगत और विगत खंडों के तथ्यों को समुचित रूप में समझने के लिए अन्योन्याश्रित साबित होंगे। इस आ शीर्वचन और मार्गद र्शन के लिए मैं उनका सदा ऋणी रहूंगा। इस ग्रंथ को पढ़कर आदरणीय डॉ. पाले वर भार्मा ने आव यक सं शोधन करने का सुझाव दिया जिसे पूरा करने के बाद यह ग्रंथ पूर्णता को प्राप्त हुआ। उनके प्रति आभार। पुस्तक के प्रिंटिग में बिलासा प्रकाशन, बिलासपुर ने सहयोग देकर मेरे लेखन को सफल बनाया है। उनका आभार।

जन्म स्थल के ऋण से उऋण होने का मेरा यह छोटा सा प्रयास है। इस प्रयास में कहीं कोई त्रुटि रह गयी हो तो पाठक उसे अवगत कराने की कृपा करेंगे। जगन्मोहन मंडल के प्रभृति साहित्यकारों को नमन करते हुए उन्हें मेरी श्रद्धांजलि। आशा है पाठकों को मेरा यह प्रयास अच्छा लगेगा। मेरे इस प्रयास में कुछ त्रुटि हुई हो तो मुझे अवगत कराने का कष्ट करेंगे ताकि अगले अंक में त्रुटि को सुधारा जा सके।

प्रो. अश्विनी केशरवानी

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