Friday, November 30, 2007

रोहिणी कुंड

शिवरीनारायण में भगवान भाबरीनारायण के चरण के नीचे एक कुंड को ही ''रोहिणी कुंड'' कहते हैं। आठों काल और बारहों मास इसमें हमे शा जल भरा रहता है। इसके द र्शन करने और इसके जल के आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, ऐसी मान्यता है। प्राचीन भाबरीनारायण माहात्म्य में इस कंुड में स्नान करने की बात का उल्लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में यह तालाब सदृ य रहा होगा और इसमें द र्शनार्थीगण स्नान करते रहे होंगे ? और भगवान नारायण जब यहां ' शबरीनारायण' के रूप गुप्त रूप से विराजमान हुए तब मंदिर निर्माण कराते समय इसे एक कुंड का रूप प्रदान कर दिया गया होगा ? भाबरीनारायण मंदिर का चबुतरा १०० ग १०० मीटर का है। अर्थात् जब किसी जलस्रोत को १०० मीटर दूर से बांधना पड़ा होगा। मंदिर परिसर में माखन साव के परिवारजनों द्वारा निर्मित एक कुंआ है। इस कुएं का जल निर्मल और स्वादिश्ट है और इसका जल स्तर कभी कम नहीं होता। एक समय था जब पूरे नगर में जल आपूर्ति इस कुएं से होती थी। इससे भाबरीनारायण माहात्म्य में उल्लेखित तथ्यों की पुश्टि होती है। आज भी रोहिणी कुंड भगवान भाबरीनारायण के चरण को स्प र्श करती हुई स्थित है। पंडित मालिकराम भोगहा कृत श्री शिवरीनारायण माहात्म्य के दूसरे अध्याय के १३४-१३५ वें भलोक का अनुवाद भोगहा जी ने इस प्रकार किया है :-

वह नारायण क्षेत्र में रहौं नित्य करि प्रेम
जब जब दानव दलन करि हरै जगत के छेम
करि सेवा वहि क्षेत्र की लहि बल निश्चर जीति
याते रोहिणी कुंड हम करी प्रगट यहि रीति।।२/१३४-१३५।।

इस कुंड की महिमा अनुपम है। इस कुंड के जल को स्प र्श करने और आचमन करने से मोक्ष मिलता है। इसी अध्याय के १३६-१३७ वें भलोक के अनुवाद में भोगहा जी ने लिखा है :-

रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि न्हाइ उत्पला नीर
योग भ्रश्ट योगी मुकति पावत धोइ शरीर।।
उत्पलेश आरंभ हो चित्रेश्वरी प्रयंत
चित्रोत्पला सुजानिये नासै पाप अनंत।।२/१३६-१३७।।

अर्थात् इसलिये रोहिणी कुंड के जल को जो कोई स्पर्श कर चित्रोत्पला नदी के जल में स्नान करेगा, योग भ्रश्ट योगी भी मुक्ति पावेंगे। अब यह बताते हैं कि चित्रोत्पला गंगा कहां से कहां तक माननी चाहिये। उत्पलेश महादेव राजीव लोचन में महानदी और पैरी के संगम में है जो अब कुलेश्वर नाम से प्रख्यात् है, वहां से चित्रा महेश्वरी अर्थात् चंद्रसेनी चंद्रपुर तक मानना चाहिये। जो अनंत पाप के नासने वाली है।

रोहिणी कुंड की महिमा अनंत है। कहा भी गया है :-

रोहिणी कुण्ड मासाद्य स्थित: सेव्य: सदा सुरै:
तस्य दर्शनं मात्रेण मुच्यते पातकैर्नरा:। २/१४४।
अनुवाद
रोहणि कुंडहि आइ करि सेवत सुर गण नित
तासु दरस ही मात्र से नासत पाप अमित।।
भावार्थ
...और रोहिणी कुंड में देवतागण आकर चरणामृत सदा सेवन किया करते हैं। तुम्हारे हमारे अनंत पाप उसके दरशन ही से क्यों न छूट जावेगा, इसलिये हम सबको चाहिये कि जब तक जीयें, रोहिणी कुंड के दरसन करें, उसके जल का चरणामृत ग्रहण करें और चित्रोत्पला नदी में नित्य स्नान किया करें।

भोगहा जी भी गाते हैं :-

लोमश से जेहि विधि सुनी कहे सूत तिमि मोहि
वही आपसों हम कहे कृपा सु मोपर होहि
महिमा रोहणि कुंड की दुर्ल्लभ मैं कहि दीन
यातें नारायण पुरी सदा मोक्ष आधीन।। ३/४७-४८।।

तभी तो श्री बरणत सिंह चौहान ने रोहिणी कुंड को एक धाम माना है। वे गाते हैं :-

रोहिणी कंुड एक धाम है, है अमृत का नीर
बंदरी से नारी भई, कंचन भयो भारीर।
जो कोई नर जाइके, दर शन करे वही धाम
बटुक सिंह दर शन करी, पाये परम पद निर्वाण।

स्कंद पुराण में इस उत्तम तीर्थ को 'श्री क्षेत्र' और 'श्री नारायण क्षेत्र' कहा गया है। यहां आज भी भगवान श्री विश्णु के अन्यान्य रूप विराजमान हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां उनका गुप्तवास है। प्रतिवर्श माघ पूर्णिमा को केवल दिन वे यहां भगवान जगन्नाथ के रूप में प्रकट होते हैं। इस दिन उनका द र्शन मोक्षदायी होता है। हजारों-लाखों श्रद्धालु द र्शनार्थी जमीन में लोट मारते यहां उनके द र्शन करने आते हैं। श्री नारायण क्षेत्र की महिमा भोगहा जी गाते अघाते नहीं हैं :-

यह धाम नारायण कलाश्रित परम पावन जानिये
हे राम रोहनि कुण्ड निर्म्मल देखकर सुख मानिये
चित्रोत्पला गंगा सुधा सम जल वहां नित प्रतिबहे
करि स्नान सुन्दर कुंड में जन भुक्ति मुक्ति तहां लहे।।
भावार्थ
वह धाम नारायण के कलाश्रित होने के कारण परम पावन है। हे राम ! वहां रोहिणी कुंड के निर्म्मल जल को देखकर आप अत्यंत सुख मानेंगे चित्रोत्पला गंगा में अमृत समान जल की धारा निरंतर निर्मल बहा करती है। वहां स्नान कर रोहिणी कुंड के चरणामृत लेने से मनुष्य गणों को भुक्ति मुक्ति मिलती है। ५/८२-८३।


यह नारायण क्षेत्र की महिमा अति अद्भूत
सुनहि जे सादर पे्रमयुत, तिन्ह न छुवै यमदूत।
जे नारायण क्षेत्र में करै वास नर नारि
जीवन्मुक्त सुधन्य वह होय प्रसन्न मुरारि।।

भावार्थ
यह नारायण क्षेत्र की महिमा परम अद्भूत है। जो कोई सादर इसे चि>श देकर सुनेगा, उसको यमदूत कदापि छू नहीं सकेंगे। जो कोई स्त्री वा पुरूष इस नारायण क्षेत्र में वास करेेंगे, उन्हें जीवन्मुक्त और धन्य २ कहना चाहिये। ५/१११-११२।

रोहिणी कुंड को प्रकट करने कथा और उसकी महिमा को पंडित हीराराम त्रिपाठी ने भाबरीनारायण माहात्म्य में याज्ञवलक्य संहिता से उद्धृत किया है-।। सूतउवाच ।। एकाग्रचि>श होकर सुनिये। तीर्थ की कथा अति पावन है। इसके श्रवण से प्राणी क्षणमात्र में पापराशि से मुक्त हो जाता है। ये उ>शम फल देने हारे तीर्थस्थान इस लोक के और दैवलोक के प्राणियों को दुर्लभ हैं। इन तीर्थन में आश्रीभूत आठौंगण देवतागण और मुनिगण रहते हैं। श्रीनारायणपुर क्षेत्र चित्रोत्पला नदी के तट आसाद्यनाम कलिंगभूमि के निकट साक्षात् धर्म्म रूप भूमि है। इस स्थान का दर्शन, स्मरण और वास पुण्यफल दाता है। इस भूमि की सेवा से अर्थात् इसमें वास करने से जगन्नाथ परमात्मा प्रसन्न रहते हैं। हे मुनि आप जो ब्रह्म वर्णन करने हारे हैं सो सब नारायण क्षेत्र को सेवन करे, अर्थात् वहां वास करें एवं इतरलोग जो वास करें तो उन्हें भी दुर्लभ ब्रह्म पद लभ्य होवे। आगे कहते हैं-नारायण क्षेत्र को साक्षात् भगवद्धाम जानिये, वह नारायण का कला रूप है। इस क्षेत्र का आदि नाम विष्णुपुरी, द्वितीय नाम रामपुर, त्रितीय नाम बैकुंठपुर और चतुर्थ नाम नारायणपुर युगानुक्रम से जानिये। यहां चित्रोत्पला नदी के तट पुण्य रूपी कानन मंडित सिंदूर नामक पर्वत के निकट साक्षात् अविनाशी श्री नारायण रोहिणी कुंड के उपर विराजमान हैं। श्री नारायण भक्तजनों के वांछित फलदाता सदा काल तीष्ट हैं। लक्ष्मीपति श्रीनारायण पीताम्बर धारण किये सर्व सृष्टिर्कत्‍ताकुंडल झलमलित, प्रकाशमान बदन, किरीट मुकुट धारण किये, श्यामघटा तुल्य वर्ण, कड़ा कंकण भूषित, कौस्तुभमणि, वक्षस्थल प्रकाशमान, वनमाला उर लसित, शंख, चक्र, गदा, पद्म से अलंकृत, कर में पंकज लिये, पीत वस्त्र सहित उ>शरीय विराजमान हैं। पीताम्बर इस भांति शोभा देता है जैसे कि श्यामल घटा में बिजली चमकती हो ? श्रेष्ठ पार्षदगण चमर पंखा लेकर सेवन कर रहे हैं। सन्मुख में गरूड़जी हाथ जोड़े निरंतर स्तुति करते हैं एवं अनेकानेक मुनीश्वर स्तुति में मग्न हैं। इस भांति सर्वश्रेष्ठ विश्व व्यापी विष्णु लक्ष्मीजी सहित सकल सुखदाता सुरेश्वर नारायणपुर क्षेत्र में विराजमान हैं। रोहिणी कुंड पर सुर असुर सब उनकी सेवा करते हैं। तिनके दर्शन मात्र से सर्व पाप मोचन होते हैं। चित्रोत्पला में स्नान कर रोहिणी कुंड का स्पर्श करते ही महा पातकी भी मुक्ति पाते हैं और जो गति योगीगणों को मिलना कठिन है, ताको प्राप्त होते हैं।

ऋशियों के पूछने पर महाविश्णु ने कहा-''हे इन्द्रादि देवगण और हे ऋषियों ! सुनो ! मैं रामनाम धारणकर रघुवंश में में नररूप हो प्रगट होऊँगा तब तुम्हारे दु:खों को हरूंगा। तुम सब जाओ और मेरी आज्ञानुसार महाउ>शम नारायण क्षेत्र में वास करो। एकाग्रचि>श होकर एक सहस्र वर्ष तक वहां विष्णु के महामंत्र से जप और यज्ञ करेश। तब हे देवगण मैं प्रसन्न होकर शरीर धारणकर प्रगट हो तुम्हें उपदेश करूंगा जिससे तुम्हारे शत्रु का विनाश होगा। इस भांति ब्रह्मवाणी श्रवणकर ब्रह्मादि सुर सिंदूरगिरि के निकट चित्रोत्पला नदी के तट पुण्यमय कानन परम रम्य शोभायमान नारायण क्षेत्र में गये और मन को जीतकर श्रीहरि का जप यज्ञ करने लगे। सहस्रवर्ष पूर्ण होने पर भक्तवत्सल श्री भगवान अपने पार्षद सहित प्रगट भये। तिन्हें ब्रह्मादि सब देवता देखत भये। तब नीलवर्ण श्यामघटा छवि, पीताम्बर और किरीट मुकुट आदि आभूषण धारण किये, शंख, चक्र, गदा, पद्म चारिभुज आयुध सहित प्रसन्न वदन भगवान बोलत भये:- ''बरम्ब्रुहि २ `` तब देवताओं ने स्तुति आरंभ की जिसे श्रवणकर कमलाक्ष अर्थात् कमल नेत्र भगवान बोलत भये। हे देवगण मैं अपअंश चतुरात्मा चारू स्वरूप धारणकर अयोध्यापुरी के मध्य रघुवंश में जन्म धारणकर प्रगट होऊंगा। कौशल्या मेरी माता और महात्मा दशरथ पिता होंगे। मेरा नाम राम होगा। भेष धनुर्धारी, लोक पावन मर्यादा और पुरूषो>शम लीला से मैं विख्यात् होऊंगा। सो हे देवगण मेरे रावण के वध करने तक तुम मेरी सेना निमि>श अपने २ अंश धर बानर रूप धरकर पृथ्वी में रहो। हे देवगण यह नारायण क्षेत्र अमल और सृष्टि की आदि से मेरा धाम है। यहां तुम्हारे जप यज्ञ करने से पूर्व पुष्टि मेरा तन भया। याहि से मैं बलवान भया और अब मैं महा २ असुरन को बध करूंगा। जब विष्णु भगवान ऐसा वरदान दे चुके तब सब देवगणों ने अर्ध्य पदार्थ उदक सहित वेदमंत्रों से उनका पूजन किया। नंतर महाविष्णु बोलत भये :- हे देवगण ! सुनो मुझको जो तुमने पदार्थ उदक दिया है तिस कारण तुम्हारे दिये हुये पदार्थ उदक से इस नारायण क्षेत्र में गंगाकद तीर्थ रूपी कुंड बहुकाल पर्यन्त रहेगा और कुंड के उपर मेरी आद्यनारायण प्रतिमा रहे्रगी। जब जब तुम दानव द्वारा निर्बल होओगे और इस स्थान में वासकर नारायण की सेवा करोगे, तब तब तुम महाअसुरों को विजय करोगे। इस कुंड को रोहिणी कुंड मैं प्रख्यात् किया है। चित्रोत्पला गंगा में स्नानकर रोहिणीकुण्ड के स्पर्श से अनेक जन्मान्तरों के पाप नाश होकर जो गति योगीजनों को दुर्लभ है सो प्राप्त होगी। उत्पलेश्वर नाम शंकर के स्थान से महानदी प्रगट भई है। वहां से चित्रामाहेश्वरी देवी परर्यन्त उसका चित्रोत्पलागंगा नाम भया है। यह चित्रोत्पला सर्व पाप की नाश करने हारी साक्षात् गंगा है। त्रेतायुग में रामनाम से प्रगट होकर मैं इस स्थान में आऊंगा। तब सीता का खोज लगाते समय मैं अपने अनुज लक्ष्मणजी सहित दर्शानाकांक्षी मुनिमण्डल सहित तुम्हें दर्शन दे इसी स्थान में नम्रबुद्धि शबरी को वरदान दूंगा। और तब इस नारायण क्षेत्र को स्पर्शकर मुनि लोगन से आशीर्वाद प्राप्तकर लंका में जाकर बड़े २ राक्षसों का वध करूंगा। देवतागणों को ऐसा उपाय बताकर और वरदान देकर अविनाशी पुरूष श्रीमन्नारायण अंतर्धान हो जात भये। तब सब देवतागणों ने श्रीमन्नारायण क्षेत्र में वास किया।। वादरायणरूवाच ।। व्यासजी वशिष्ठ जी से कहते भये। इस भांति यह नारायण क्षेत्र उ>शम तीर्थ है- तहां सब देवों के देव नारायण का वास है। जिन्हें सब देवासुर सेवन करते हैं, उनके दर्शन से अवश्यकर नर पातकों से मोचन हो जात हैं। यह तीर्थ जिस भांति नारायण क्षेत्र कहाया और जिस भांति कुण्ड का नाम ''रोहिणी कुण्ड`` भया सो कथा मैंने आपसे कही। अब इसकी ललित कीर्ति के चरित्र श्रवण करने का फल श्रवण कीजिये। इस कीर्ति को एकचि>श होकर श्रवण करने से रघुपति पद भक्ति प्राप्त होगी और सकल सुख, समृद्धि, पुत्र-पौत्रादि अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष लभ्य होंगे। सम्पूर्ण पातक नाश होकर संसार में विपुल कीर्ति प्राप्त होगी।

पंडित मालिकराम भोगहा रोहिणी कुंड की महिमा गाते हैं :-

कुंड रोहिणी की महिमा का कहों सुभग सज्जन प्यारे
तीन लोक चौदहों भुवन यश गावत हैं सब संसारे।
देखो जहां वहां जल पत्थर पत्र पुष्प फल फूल वही
एक भावना भक्त बनावे प्रीति रीति रस रीति चही।
जोग ध्यान जप तप व्रत पूजा बिना प्रेम कुछ सफल नहीं
बिना लोक व्यंजन इव कहिये मालिक सीठे स्वाद सही।
कुंड रोहिणी चरण कमल तर गिरधारी गिरिवर धरणम्
तुंड चखि शबरी की बदरी नामर धंगी वद करणम्
लाल बने नयनार विंद भज देहु नाथ सुंदर वरणम्
जय सुंदरगिरि राज शबरीनारायण तारं तरणम् ।। १ ।।
जय आसन पंपा के संगम बहत नीर वल्ली तरणम्
रहे पुष्प छाया तर शीतल बंधु सहित आसन करणम्
त्रभ्ंशृशाप किन्नर की गति औ पापो मोक्ष वधू वरणम्
जय सुंदरगिरि राजे शबरीनारायण तारं तरणम् ।। २ ।।
गौतम नारि शिला तें तरिगे इन्द्रशाप मोचन करणम्
भई पार मनिका अघधारी अजामील सुर पुर करणम्
मैं अधीन भवजाल फंद भ्रम अहोनाथ चित में धरणम्
जय सुंदरगिरि राजे शबरी नारायण तारं तरणम् ।। ३ ।।
बुद्धिहीन सेवा बलनाही राम हृदय नहि मुख वरणम्
तीरथ पैज नहीं या तन में करूणा सिंधु दया करणम्
पतित हंस पावन कर स्वामी पार ब्रह्म चितयो धरणम्
जय सुन्दर गिरि राजे शबरीनारायण तारं तरणम् ।। ४ ।।
श्याम रूप लीला तब अवगत जलशायी सुंदर करणम्
विश्व रूप रमणी रस रंगी जय मुकुंद राधा वरणम्
कलापवंत मन बोध भजें जय दीनबंधु रास्यो करणम्
जय सुंदरगिरि राजे शबरीनारायण तारं तरणम् ।। ५ ।।

।। याज्ञवल्क्य उवाच ।। हे विप्र ! एकाग्रचि>श होकर श्रवण कीजिये। इस पुण्यदाता आख्यान के सुनने से पातकी नरों को भी मुक्ति प्राप्त हो जाती है। मैं आपसे क्रम से रोहिणी कुण्ड का माहात्म्य वर्णन करता हूं। पूर्व में बंगाल देशाधिपति क्षत्री कुलभूषण धनुर्विद्या परायण ब्रह्म पालक और पुण्यात्मा एक धर्म्मवान राजा भया। उसकी रानी विशाल नेत्रों वाली विनता नाम्नी भई। सो राजा अपनी विख्यात् चंद्रिका नगरी नाम रम्य राजधानी में रहकर चतुरंग सेना सहित धर्म पूर्वक पृथ्वी पालन करता भया। एक समय जब पति पत्नी का एकांत भया। अर्थात् रममाण राजा मणिमय रचित महल के बीच अपनी राजी के पलंग पर बैठत भया और रानी के मस्तक पर हाथ फेरा तब रानी के सिर में खोपड़ी न देखकर राजा चकित होकर बोला कि हे रानी ! यह क्या है ? तब पूर्व के वृ>शांत की ज्ञाता रानी बोलती भई। हे राजन ! अब कुछ पूर्व का वृ>शांत सुनिये। पूर्व जन्म में मैं बानरी योनि में उत्पन्न थी। बानरों के साथ सिंदूरगिरि के निकट रम्य कानन में फिरती रही। एक समय रामनगर अर्थात् शुभ नारायण क्षेत्र में रोहिणी कुण्ड के समीप बांस भिरों में बानरन सहित कूद २ के क्रीडा करती रही। उस अवसर पर मैं बांस की डगाली से खिसल पड़ी तब मेरी खोपड़ी में एक बांस का कांटा छितजात भया। उस बांस कंटक में मेरी उपर की खोपरी रहजात भई और मैं गिर पड़ी। अस्थि सहित मेरा शरीर कमल कुमुदिनी आदि फूलों से मंडित रोहिणी कुण्ड में गिरकर गल जात भया। इस भांति मेरे अनेक जन्मों के पातक उस कुंड के प्रभाव से नष्ट हो जात भये और पुण्योदय होकर मैंने राजपुत्री का जन्म पाया। मेरी आधी खोपड़ी बांस कंटक में पोही हुई उसी स्थान पर अबलों लटकती है। या भांति मैं पूर्व जन्म की बानरी अब आपकी पटरानी भई हूं और आपके साथ राज भोगती हूं। पति सहित इस लोक देवेन्द्र भवन में सुख भोगकर पश्चात् मैं आप सहित बैकुंठ पाऊंगी। रानी से ये वचन सुनकर राजा आश्चर्य चकित होकर बोलत भये- प्रभात समय मैं तेरे सहित नारायण क्षेत्र चलूंगा। वहां तुम मुझे यह दिखाना कि कहां रोहिणी कुंड है और कहां तेरी आधी खोपड़ी है। ऐसा निश्चयकर प्रभात ही राजा ने सैन्य और रानी सहित नारायण क्षेत्र को कूच किया। कुछ दिन चलने के पश्चात् वहां पहुंचे। चित्रोत्पला गंगा में स्नान किये और रानी के संकेत पर रोहिणी कुंड को जानते भये। वहीं पर बांसों में आधी खोपड़ी की अस्थि राजा खोजते भये। निदान एक बांस के भिरे में कांटों पर छिदे हुये खोपड़ी के श्वेत अस्थि राजा को दृष्टि पड़े। राजा ने उन्हें अपने धनुष से रोहिणी कुंड में गिराये। कुंड में पड़ने के क्षणमात्र ही नंतर रानी के शीस पर अस्थि पूर्ण हो गई। इसे देख राजा अचंभित भये। उस तीर्थ को परमो>शम ठहराया और उस शुभ पुण्यमय रामपुर नाम क्षेत्र में वासकर वहां भगवत्धाम को मणिमय भयो और तत्क्षण अनेक मुनिगण सहित यज्ञ आरंभ कर दियो और उसे भक्ति पूर्वक संपूर्ण करके विपुल दक्षिणा अर्पण की। तब प्रसन्न होकर श्रीमन्नारायण प्रगट भये। श्रेष्ठ राजा ने स्तुति की। भगवान के वाम अंग मंे साक्षात् लक्ष्मीजी सहित मुखारबिंद, मकराकृत कुंडल, किरीट मुकुट सहित घनश्याम कलेवर पीतांबर धारण और निज आयुध सहित, चतुर्भुज रूप देख राजा ने प्रणाम कियो और विधिवत पूजा और स्तुति करी । ।। राजोवाच।। हे महाराज ! आपके दर्शन पाते ही मैं धन्य भया हूं। आपके दर्शन ने मुझे कृतकृत्य किया। अब मुझे यही वर दीजिये कि जन्म जन्म में आपके पदारविन्दों में मेरी भक्ति हो। यह सुन भगवान एवमस्तु कहत भये। और कहा मेरी उपासना से तू कल्मष रहित इस लोक का सुख भोगकर अन्त में देवेन्द्र भवन देवाधिदेव भवन में स्थान पावेगा। हे राजा ! यह नारायण तीर्थ परम पावन है, इसे तू साक्षात् भगवत्धाम जान। यह नारायण का कलारूप है। जब जब धर्म्म में ग्लानि होती है और राक्षसों के अधर्म्म से पृथ्वी को भार होता है तब तब दैत्यों के भंजनार्थ और भूभार निवारणार्थ मैं रूप धारण करता हूं। रामावतार के समय अर्थात् जब मैं रघुकुल में नर स्वरूप रामरूप धारणकर अवतार लंूगा तब अनुज लक्ष्मण सहित इस तीर्थ को आऊंगा।। राजा को इस भांति प्रसादितकर भगवान अंतर्धान हो जात भये। तबसे उस बंगदेशाधिपति ने भगवत्भाव भावना सहित कई सहस्रवर्ष धर्माचरण से राज्य सुख भोगा। या भांति नारायणपुर में सेवकन सहित वासकर शरीरसुख भोगने उपरान्त वह राजा सपत्नीक देवतों की भांति दिव्य विमान में आरूढ़ होकर अप्सरागण क्षत्र चामर दिव्य अलंकार गंधादि युक्त इन्द्र के भुवन में जात भया। इन्द्र ने बड़े आवभाव से पूजा की। नन्तर राजा दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त भया।। या प्रकार हे मुनीश्वर ! रोहिणीकुण्ड को अत्यद्भुत माहात्म्य मैंने आपके प्रति वर्णन कियो। सो यह नारायण क्षेत्र सर्वदा प्राणियों को मुक्तिदायक जानिये।

दंडकारण्य जाते श्रीराम को ऋशि मुनियों ने कहा।। ऋषिरूवाच ।। हे राम ! श्रवण कीजिये। यहां राम भक्ति परायण शिवरी को वास है सो आप जाकर वाके आश्रम को पावन कीजिये। यह धाम नारायण कलाश्रित अति पावन है। अमल रोहिणीकुण्ड भी यहीं पर है, स्नानकर या शुभकुंड को जल मस्तिष्क में सिंचन करने से भुक्ति मुक्ति होती है। हे दीर्घबाहु ! अब चित्रोत्पलागंगा के अमृततुल्य निर्मल जल में स्नानकर रावणादि राक्षसों का बध कीजिये। हे विशाल बाहु राम ! या चित्रोत्पला के उ>शर तट जो अति पवित्र उच्चभूमि है, सो सिंदूरगिरि नाम से विख्यात् है। पूर्व समय में या स्थान में जब गणेशजी ने सिंदूर निपातन कियो तब से ही याको नाम ''सिंदूरगिरि'` भयो है। सो हे रघुवंश शिरोमणि ! आप याकी प्रदक्षिणा कीजिये यासें आपको भय शोक विनाश होकर यश कीर्ति बढ़ेगो। ये सब बातें श्रवणकर राम ने मुनि को प्रणामकर तद् कथनानुसार र्व>शाव कियो। मुनिनन से आशीर्वाद पाकर श्रीयुत् रामलक्ष्मण शिबरी के गृह गये। भक्ति परिपूर्ण शिवरी ने भ्राता सहित श्रीराम की पूजा और स्तुति करी और हर्ष से गद्गद होकर साष्टांग नमस्कार कर बोली। आइये ! हे प्रलम्बबाहु राम ! मेरी दीन कुटी को पावन कीजिये। कमल लोचन श्रीराम ने भक्तिभाव देखके भिल्लिनी शिवरी को आतिथ्य अंगीकार कियो। पहुनाई कर वाके फल फूल ग्रहण किये और वाकी भक्ति से प्रसन्न होकर कह्यो कि हे शबरी ! वरदान मांग ।। शवरर्युवाच ।। शबरी कहती भई। हे राम ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो एक वरदान हेतु याचना करती हूं, सो दीजिये। अर्थात् लोक में मेरे नाम सहित आपका नाम विख्यात् हो। शिवरीनारायण ऐसा नाम इस तीर्थ का होवे। नन्तर शिवरी ने कहा हे भूपाल ! अब मेरे अर्थ चिता रचिये। हे कमलनयन मेरे पंचात्मक देह को दग्धकर अब मैं आपके भवन का वास करूंगी। ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव नाम बानरों का राजा रहता है। यह सुग्रीव अपनो बानर और भालुदल लेकर आपको अर्थ सम्पादन करोगो। तब चारि पदार्थ के देने हारे भक्तवत्सल महाराज रामचंद्र एवमस्तु कहते भये। वाही दिवस से या क्षेत्र को नाम शिवरीनारायण भयो है और वाही नाम से यहां पुरी बसी है।

ऐसे पवित्र और पुण्य फलदायी क्षेत्र में कौन निवास करना नहीं चाहेगा ? मेरा परम सौभाग्य है कि यह मेरी जन्मस्थली है। पतित पावनी मोक्षदायी चित्रोत्पलागंगा का मुझे संस्कार और भगवान भाबरीनारायण का आ शीश मिला है तभी इस पवित्र ग्रंथ की रचना कर सका हूं। यहां की महत्ता कवि भी गाते अघाते नहीं हैं। कवि की एक बानगी पे श है :-

दोहा

चित्रउतपला के निकट श्रीनारायण धाम।।
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरीनारायणग्राम।। १ ।।

सवैया

होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के पाप हरैं।
जहां जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु अपार तरैं।। १ ।।

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